Anant TV Live

अदालतों के पक्षकारों,कानूनी परामर्शदाताओं, द्वारा गंभीरता से सही वैकल्पिक कोर्ट में, अपील

 | 
अदालतों के पक्षकारों,कानूनी परामर्शदाताओं, द्वारा गंभीरता से सही वैकल्पिक कोर्ट में, अपील
गोंदिया - भारत की न्यायप्रणाली मूल रूप से भारतीय संविधान और संसद, विधानसभाओं इत्यादि द्वारा पारित कानूनों के आधार पर और उनमें लिखे उसके उद्देश्य और परिपेक्ष के आधार पर अपना निर्णय प्रदान करती है जो सर्वविदित है और विश्व प्रसिद्ध है। हर क्षेत्र में उससे संबंधित न्यायपालिका का अपना एक विशेष स्थान होता है और संबंधित केस को उसके कर्याअधिकार क्षेत्र में ही सुलझाया जाता है और उस क्षेत्र में ही वैकल्पिक उपाय और अपील की जाती है और वह विकल्प पूर्ण हो जाने पर ही आगे के विकल्प को चुना जाता है, ताकि एक कानूनी प्रक्रिया पूर्ण हो जाने के बाद दूसरी प्रक्रिया चालू हो क्योंकि हर न्यायपालिका क्षेत्र का अपना अपना कार्य अधिकार होता है जिसके अंतर्गत कार्य प्रणाली सुशोभित होती है जैसे अगर हम जेएमएफसी कोर्ट की बात करें तो उसके बाद अपील डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, हाईकोर्ट फिर सुप्रीमकोर्ट में होती है बात अगर हम उपभोक्ता न्यायालय की करें तो सामान्य परिस्थितियों में पहले जिला उपभोक्ता शिकायत निवारण मंच,फिर राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग, फिर राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग, फिर सुप्रीम कोर्ट ऐसी प्रक्रिया बंधी हुई है जिसमें जिसके अंतर्गत केस प्रक्रिया भारतीय न्याय प्रणाली में संचालित होती है। अतः सभी शिकायत या अपील करने वाले उपभोक्ताओं, पक्षकारों और क़ानूनी परामर्शदाताओं को कानूनी प्रक्रिया, वैकल्पिक उपाय का गंभीरता से पालन करना अनिवार्य हैं, अन्यथा संबंधित कोर्ट द्वारा भारी कॉस्ट लगाई जा सकती हैं... इसी विषय से संबंधित एक मामला माननीय पंजाब व हरियाणा हाईकोर्ट में गुरुवार दिनांक 18 फ़रवरी 2021 को माननीय न्यायमूर्ति अनिल क्षेतरपाल की सिंगल जज बेंच के समक्ष सिविल रिट पिटिशन क्रमांक 11540 / 2020 , 11719/ 2020, 11680/2020 तीनों में याचिकाकर्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के रूप में आया जिसमें माननीय बेंच ने अपने पांच पृष्ठों के आदेश में कहा कि न्यायपालिका द्वारा सामना की जाने वाली सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है याचिकाकर्ताओं का बेस्ट वैकल्पिक उपाय राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग होने के बावजूद यहां आए,वास्ते उन पर ₹2 लाख़ की कास्ट लगाई जाती है, जो स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान चंडीगढ़ के गरीब रोगी कल्याण निधि में जमा की जाए और आदेश कॉपी के अनुसार बेंच ने कहा न्यायपालिका द्वारा सामना की जाने वाली सबसे बड़ी बुराइयों में से एक है 'मंच शॉपिंग' में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने एक रिट याची पर 2 लाख रुपये की लागत लगाते हुए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत उपलब्ध वैकल्पिक उपाय का उपयोग न करने के लिए। बेंच धारा 27 के तहत, प्रत्यर्थियों द्वारा राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के समक्ष शुरू की गई निष्पादन कार्यवाही के खिलाफ याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत रिट याचिका से निपटने के लिए था (जहां एक व्यक्ति जिला मंच द्वारा किए गए किसी भी आदेश का पालन करने में विफल रहता है) के तहत शुरू की गई। याचियों ने प्रतिवाद किया कि धारा 27 के तहत कार्यवाही चलाने योग्य नहीं थी, क्योंकि राष्ट्रीय कंपनी विधि अधिकरण ने आईबीसी की धारा 14 के तहत अधिस्थगन का आदेश पारित कर दिया था, जिसके द्वारा अधिस्थगन घोषित किया गया है, जिसमें किसी न्यायालय, अधिकरण, माध्यस्थम् पैनल या अन्य प्राधिकारी में किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश का निष्पादन शामिल है। माननीय बेंच दो प्रश्नों को ध्यान में रख रही थी। प्रशनः 1) उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के तहत कार्यवाही पर आईबीसी के तहत अधिस्थगन का निहितार्थ,न्यायालय ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 27 के संबंध में दिवालिया और दिवालियापन कोड की धारा 14(1)के संदर्भ में अधिस्थगन की घोषणा के महत्वपूर्ण मुद्दे पर कार्यवाही की।न्यायालय के समक्ष प्रश्न था कि क्या उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 27 के तहत कार्यवाही को दिवालिया और दिवालियापन संहिता, 2016 की धारा 14 के अनुसार आगे बढ़ने की अनुमति दी जा सकती है।वर्तमान मामले में, याचियों ने प्रतिवाद किया था कि 10.10.2019 दिनांकित अधिस्थगन के आदेश को देखते हुए, आगे की कोई कार्यवाही राज्य उपभोक्ता आयोग द्वारा पूर्वोक्त निष्पादन आवेदन में नहीं की जा सकती है।इस प्रस्ताव के साथ असहमत हालांकि, एकल बेंच ने कहा,इस न्यायालय को पता नहीं चलता कि राज्य आयोग के समक्ष चलने वाली कार्रवाई अधिकारिता के बिना है। 1986 के अधिनियम के अंतर्गत 1986 के अधिनियम की धारा 27 में कारावास सहित जुर्माना दिए गए हैं। इसलिए राज्य आयोग के समक्ष चलने वाली कार्रवाइयों को पूर्णतया अधिकारिता के बिना नहीं कहा जा सकता। बेंच ने एनसीडीआरसी की तीन सदस्यीय पीठ के निर्णय का उल्लेख भी किया, जिसमें कहा गया कि राष्ट्रीय कंपनी विधि अधिकरण द्वारा पारित आदेश के कारण धारा 27 के तहत कार्यवाही को रोका नहीं जा सकता। एनसीडीसी ने निर्णय दिया था कि आईबीसी की धारा 14 के तहत अधिस्थगन के परिणामस्वरूप 1986 अधिनियम की धारा 27 के तहत कार्यवाही नहीं रह जाएगी। बेंच ने यह देखा, अपील के सांविधिक उपाय (उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अधीन) को ध्यान में रखते हुए, उच्च न्यायालय के लिए रिट याचिका ग्रहण करना उपयुक्त नहीं होगा। उसने आगे कहा कि अधिनियम की धारा 27 के तहत किसी आदेश के खिलाफ उचित उपचार यह होगा कि धारा 27 ए के तहत राष्ट्रीय आयोग से संपर्क किया जाए। यह देखा, इसमें कोई संदेह नहीं है कि एनसीडीआरसी ऐसी याचिका (अपील) की व्यापक रूप से जांच करने और निर्णय लेने के लिए सक्षम है जो इन रिट याचिकाओं में की जाने वाली है। बेंच ने यह भी देखा,इसमें कोई संदेह नहीं कि एनसीडीआरसी ऐसी याचिका की व्यापक तौर पर जांच कर सकता है और उसे समग्र रूप से इन रिट याचिकाओं में लिया जाने वाला अभिवाक़ तय करेगा,केवल इसलिए कि एनसीडीआरसी की तीन सदस्यीय पीठ ने पहले ही इसका दृष्टिकोण अपनाया है, इसलिए वह अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका को विचारार्थ स्वीकार नहीं कर सकती।

Around The Web

Trending News

You May Also Like