निंदा व आलोचना में मतभेद

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निंदा व आलोचना में मतभेद

निंदा व आलोचना ये दो ऐसे शब्द हैं जिनमे एकबारगी कोई अंतर मालूम नही पड़ता, दरअसल यह भेद इतना सूक्ष्म है कि जिसके जिसके कारण हम अक्सर आलोचना को भी निंदा ही समझते हैं किंतु इन दोनों में बहुत नजदीक का रिश्ता है। इनका रंग रूप एक जैसा है किंतु प्रकृति व आत्मा एकदम भिन्न भिन्न है। 

निंदक कोई भी हो सकता है पर आलोचक सम्भवतः वही होगा जिसके हृदय में हमारे लिए कुछ करुणा, स्नेह व मैत्री का भाव विद्यमान होगा क्योंकि आलोचना का जन्म करुणा के द्वारा होता है व निंदा का घृणा के द्वारा। आलोचना होती है जगाने के लिए, निंदा होती है हमारे आत्मबल को सुलाने के लिए। आलोचना का लक्ष्य होता है केवल शुद्धिकरण करना, सत्य को खोजना व मार्गदर्शन करना किंतु निंदा का लक्ष्य होता है हमारी आत्मा पर घाव करना, धूल धूसरित करना व पैरो से कुचल डालना। आलोचना कितनी भी कठोर हो किंतु उसमे मैत्री की सुगंध है जबकि निंदा में दुर्भावना की दुर्गंध है। आलोचना का जन्म ही सदभावना से होता है जिसका उद्देश्य हमें मार्गनिर्देशित करना हो सकता है जबकि निंदा अहंकार से जन्म लेती है जिसका भाव हमे नीचा दिखाना, छोटा साबित करना व आत्मविश्वास को गिराना होता है। आलोचना इस बात का अन्वेषण है कि सत्य क्या है ? सत्य कैसा है ? व सत्य के पालन में त्रुटियां कहां हुईं। सच्चे आलोचक न केवल हमारे शुभचिंतक होते हैं वरन यही राष्ट्र के जिम्मेदार नागरिक भी हैं। 

अपने दोषों को देखने से अविवेक नष्ट होता है और केवल दूसरों के दोष देखने से व्यक्ति का अपना अहंकार पुष्ट होता है, बढ़ता है। अहंकारी के स्वभाव में स्वाभाविक रूप से तानाशाही का पुट आ ही जाता है। अहंकारी को, तानाशाह को किसी भी प्रकार का परामर्श-सलाह तक नागावार गुजरती है, क्योंकि उसे लगता है कि सलाह देकर उसे नीचा और अज्ञानी दिखाये जाने का प्रयास किया जा रहा है। अहंकारी और तानाशाह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ, ज्ञानी और सर्वज्ञ समझने का भ्रम पाले रहता है। उसे लगता है कि वह सब कुछ जानता है, जो वह नहीं जानता उसे संसार में अन्य कोई भी जानता हो, यह असंभव है। जिस अहंकारी का सोच ऐसा हो, जो परामर्श दिये जाने को अपना अपमान मानता हो, वह आलोचना को कैसे स्वीकार कर सकता है और निंदा तो उसके लिए असहनीय ही होती है। ऐसा व्यक्ति आलोचना और निंदा में अंतर नहीं मानता है क्योंकि उसका अहंकार आलोचना और निंदा में भेद करने में विश्वास नहीं रखता है।

अहंकारी व्यक्ति अथवा सत्ता के आदेशों, निर्देशों को साक्षात ईश्वर की आज्ञा मानने वाले विवेक शून्य बैल मरखने होकर इस उस को सींग मारकर चलने के आदी हो जाते हैं। इन बेचारों को नहीं पता कि बिना विवेक, बिना जिज्ञासा के अंधानुकरण करने वाले न अनुयायी होते हैं, न भक्त-वे तो केवल गुलाम हो सकते हैं। आंखों पर अंधौरा लगाये एक छोटे से दायरे में घूमते कोल्हू के बैल की तरह तमाम लोग भी एक ही वैचारिक सर्किल में टहल रहे हैं और समझ रहे हैं- ‘मालिक ने तो हमें पूरी दुनिया घुमा दी। घोड़े पर बैठा सवार एक डंडे में गाजर बांधकर उसे घोड़े के मुंह के आगे लटका देता है। घोड़ा कभी न मिल सकने वाली गाजर के लालच में चलता चला जाता है और घुड़सवार अपना लक्ष्य साध लेता है। वह ऐसे ही घोड़े का मूर्ख बनाकर उसकी सवारी गांठता रहता है।

बात निंदा और आलोचना की, जिसमें ज्यादातर लोग भेद नहीं करते हैं जबकि इन दोनों के बीच बड़ा भेद है। आलोचना एक निश्चित दिशा की ओर प्रेरित करती है और आदर्शों के अनुरूप होती है जबकि निंदा दिशाहीन है और अपमान व तिरस्कार के भाव से होती है।

आलोचना और निंदा में सूक्ष्म भेद है। कभी-कभी निंदा आलोचना जैसी लगती है और कभी आलोचना निंदा जैसी। बहुत करीब का रिश्ता-नाता है। उनका रंग रूप एक जैसा है, मगर आत्मा बड़ी भिन्न है। आलोचना होती है करुणा से, निंदा होती है घृणा से। आलोचना होती है जगाने के लिए निंदा होती है मिटाने के लिए। आलोचना का लक्ष्य होता है सत्य का आविष्कार, निंदा का लक्ष्य होता है असत्य का पोषण।’

आलोचना अत्यन्त मैत्रीपूर्ण है, चाहे कितनी भी कठोर क्यों न हो, फिर भी उसमें मैत्री है और निंदा चाहे कितनी भी मधुर क्यों न हो, उसमें जहर है। जैसे जहर ही शक्कर में लपेटकर दिया जा रहा है। निंदा उठती है अहंकार-भाव से… मैं तुमसे बड़ा, तुम्हें छोटा करके दिखाऊंगा। आलोचना का संबंध अहंकार से नहीं है। आलोचना इस बात का अन्वेषण है कि सत्य क्या है, सत्य कैसा है? आलोचना बहुत कठोर हो सकती है, क्योंकि कभी-कभी असत्य को काटने के लिए कृपाण का उपयोग करना होता है। असत्य की चट्टानें हैं तो सत्य के हथौड़े और छैनियां बनानी पड़ती हैं।

आज तो आलोचना को भी निंदा मानने का ऐसा दौर चल पड़ा है, जिसमें सवाल पूछने वालों को बुरा नहीं बहुत बुरा समझा और साबित करने की कोशिश हो रही है। कोई नहीं समझना चाहता कि आलोचना विकास की असली पथ प्रदर्शक होती है। अहंकार इस कालावधि पर हावी है वह अहंकार जो कभी किसी का रहा नहीं और आदतन कभी किसी का रहेगा भी नहीं। अंत में यही कि आलोचना को अपमान न मानकर सम्मान देंगे जो जीवन में बहुत कुछ अच्छा घटित होगा। हां-यह भी कि निंदा न किसी की करें और न किसी की सुनें। बाकी आपकी मर्जी।

अतः सच्चे आलोचक बने दुर्भावना व दुराग्रह से ग्रसित निंदक नहीं।

प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार

लखनऊ, उत्तर प्रदेश

सचलभाष/व्हाट्सअप : 6392189466

ईमेल : prafulsingh90@gmail.com

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