विभिन्न प्राचीन शिक्षा केन्द्र गुरुकुलों और आधुनिक गुरुकुलों में शिक्षण व्यवस्था
Mar 10, 2021, 19:41 IST
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विभिन्न प्राचीन शिक्षा केन्द्र गुरुकुलों और आधुनिक गुरुकुलों में शिक्षण व्यवस्था
भारत में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के पूर्व परम्परागत शिक्षा पद्धति का प्रचलन था। देश के महापुरुष जिन्होंने देश ही नहीं वरन् विदेश में भी अपने बुद्धि कौशल का परचम लहराया था उन्होंने हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति से ही शिक्षा ग्रहण की थी।
यदि हम वैदिक युगीन शिक्षा की ओर दृष्टिपात करें तो सम्पूर्ण परिदृश्य ही भिन्न परिलक्षित होता है। मानव का जीवन आश्रमों में विभाजित था- १. ब्रह्मचर्य, २ गृहस्थ, ३. संन्यास, ४. वानप्रस्थ। ब्रह्मचर्य आश्रम अध्ययन के लिए निर्धारित था। शिक्षा प्राप्त करने के लिए आज के समान विद्यालय नहीं होते थे। गुरुकुल शिक्षा पद्धति का ही प्रचलन था। समाज के चार अंग थे- १. ब्राह्मण, २. क्षत्रिय, ३. वैश्य, ४. शूद्र। गुरुकुल शिक्षा पद्धति में इनमें से किसी अंग के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं था। सभी वर्ण के बालक गुरुकुल में प्रवेश ले सकते थे। किसी के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं था। सभी वर्ण के बालक गुरुकुल में प्रवेश ले सकते थे। गुरुकुल में ऊँच-नीच, जात-पात का नामोनिशान नहीं था। आधुनिक विद्यालयों के समान गुरुकुल में किसी भी प्रकार का शुल्क निर्धारित नहीं था। सम्पूर्ण शिक्षा अवधि नि:शुल्क थी। शिक्षा पूर्ण होने पर विद्यार्थीगण अपने सामर्थ्यानुसार आश्रम को दान स्वरूप भेंट देते थे। गौदान, भूमिदान, अनुदान आदि के रूप भेंट होती थी। कुछ गुरुकुल भारत ही नहीं अपितु विदेशों में ख्याति अर्जित कर चुके थे। विदेशों से शिक्षार्थी यहाँ शिक्षा ग्रहण करने आते थे और अपने देश में भारत का यशोगान करते थे। इस लेख के माध्यम से मैं अपने पाठकों का भारत के कुछ प्रसिद्ध गुरुकुलों की ओर ध्यानाकर्षण करना चाहूँगी जो अत्यन्त ही संक्षिप्त रूप में हैं-
१. महर्षि वेदव्यास का गुरुकुल : वेदव्यासजी द्वापर युग के अंत में हुए थे। इनका पूरा नाम कृष्णद्वैपायन है। इन्हें व्यास या वेदव्यास भी कहा जाता है। गुरु पूर्णिमा के विशेष दिन इनकी पूजा की जाती है। कहा जाता है कि महाभारत ग्रंथ के साथ ही इन्होंने शताधिक ग्रंथों की रचना की तथा कुछ पुराण भी इनके द्वारा रचित माने जाते हैं। इनके कुछ शिष्यों ने आश्रम स्थापित कर वैदिक शिक्षा देने का कार्य किया।
२. शौनक ऋषि का गुरुकुल : इनके गुरुकुल में दस हजार से अधिक शिष्य शिक्षा प्राप्त करते थे। इनके पिता का नाम शुनक था। इनके आश्रम में गुरुकुल का सर्वोच्च पद कुलपति होता था। आधुनिक काल में सम्पूर्ण विश्व में विश्वविद्यालय के प्रमुख को कुलपति या वाइस चांसलर कहा जाता है। आधुनिक समय की शिक्षण पद्धति तो सर्वथा भिन्न है परन्तु कुलपति शब्द शिक्षाविदों ने यहीं से ग्रहण किया है।
३. अत्रि गुरुकुल : विद्वानों की मान्यता है कि अत्रि वंश के कारण ही पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। पारसी धर्मावलम्बी अग्रिपूजक हैं। कहा जाता है कि अत्रि लोग सिन्धुपार गए थे। वे ईरान (प्राचीन नाम पारस) गए और यज्ञ का प्रचार प्रसार किया। कृषि कार्य को अत्रि ऋषि ने विकसित करने में योगदान दिया। ब्रह्मा पुत्र सोम के पिता अत्रि ऋषि थे। वे कर्दम व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। इनका आश्रम पावन चित्रकूट में था।
४. धौम्य ऋषि का गुरुकुल : धौम्य ऋषि के आश्रम के प्रमुख आज्ञाकारी शिष्यगण आरुणि और उपमन्यु की गुरुभक्ति आज भी विश्वप्रसिद्ध है। इस आश्रम में शिष्यों को तप और योग साधना में पारंगत किया जाता था। तितिक्षा और संयम की मूलभूत शिक्षा यहाँ का प्रमुख ध्येय रहा है।
५. भारद्वाज ऋषि का गुरुकुल : यह आश्रम प्रयाग में था। भारद्वाज ऋषि ने महर्षि भृगु से धर्मशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी। उन्होंने 'भरद्वाज स्मृतिÓ की रचना की थी। भारद्वाज ऋषि वैदिक ऋषियों में सर्वोच्च स्थान पर हैं। ये विमान शास्त्र के प्रणेता थे। इनका 'यन्त्र सर्वस्वÓ बृहद् ग्रंथ प्रसिद्ध है। इस ग्रंथ में युद्ध में प्रयुक्त होने वाले विमानों के निर्माण विषयक सूत्र समीकरण उपलब्ध हैं। ऋषि भारद्वाज अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, व्याकरण, धर्मशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, आयुर्वेद, भौतिक विज्ञान आदि कई विषयों में असाधारण प्रतिभा के धनी थे।
६. ब्रह्मर्षि वसिष्ठ का गुरुकुल : यह गुरुकुल विश्व प्रसिद्ध था। दशरथ नंदन राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के ये गुरु थे। वसिष्ठ के कथनानुसार ही दशरथजी ने अपने चारों पुत्रों को विश्वामित्र के आश्रम में भेजा था।
७. विश्वामित्र का गुरुकुल : यह आश्रम बकसर (बिहार) में स्थित था। यहाँ रहकर राम-लक्ष्मण ने धनुर्विद्या प्राप्त की थी। यहाँ शिक्षा प्राप्त करते हुए उन्होंने कई राक्षसों को मार गिराया।
८. महर्षि वाल्मीकि का गुरुकुल : महर्षि वाल्मीकि संस्कृत भाषा के आदि कवि माने जाते हैं। इन्होंने ही संस्कृत भाषा में 'श्री वाल्मीकि रामायणÓ की रचना की है। सीताजी ने गर्भावस्था में इसी आश्रम में निवास किया था। यहीं पर लव तथा कुश का जन्म हुआ था। वाल्मीकि ऋषि श्रीराम के समकालीन थे।
९. गौतम ऋषि का गुरुकुल : विद्वानों की मान्यता है कि गौतम ऋषि के आश्रम में श्रीराम गए थे। वहाँ श्रीराम ने पाषाण रूप में स्थित अहिल्या को अपने चरणों की रज से शापमुक्त किया था। उसने मानवी रूप धारण कर लिया था। गौतम ऋषि धनुर्वेदाचार्य भी थे और स्मृतिकार भी।
१०. परशुराम ऋषि का गुरुकुल : यह नर्मदा के तट पर स्थित था। परशुरामजी जनकजी तथा दशरथजी को बहुत सम्मान देते थे। कालान्तर में वे दक्षिण प्रदेश में चले गए और एक नए आश्रम की स्थापना की तथा शस्त्र तथा शास्त्र की शिक्षा का प्रसार किया।
११. कण्व ऋषि का गुरुकुल : इनके आश्रम में नैयायिक रहा करते थे। वे न्याय सिद्धान्त के ज्ञाता थे। इन्हीं के आश्रम में मेनका पुत्री शकुन्तला रहती थी। दुष्यन्त तथा शकुन्तला का पुत्र इसी आश्रम में सिंह शावक से खेलता था। यही भरत प्रसिद्ध सम्राट हुए। इन्हीं के नाम से हमारा देश 'भारतवर्षÓ कहलाया।
१२. कपिल मुनि का गुरुकुल : महाभारत के अनुसार कपिल मुनि सांख्य के वक्ता कहे गए हैं। इन्होंने अपनी माता को ज्ञान दिया। उसे ही सांख्य दर्शन कहते हैं। ऐसा कहा जाता है वनवास के समय राम, लक्ष्मण और सीता कपिल मुनि के आश्रम में पहुँच गए। वे तीनों थके हुए थे। उन्हें पानी की तलाश थी। कपिल मुनि के आश्रम में ही उनकी तृषा शान्त हुई।
१३. वामदेव का गुरुकुल : वामदेव को विश्व में संगीत के प्रणेता के रूप में स्वीकारा गया है। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र सामगान से प्रेरणा लेकर ही निर्मित है। इस अति प्राचीन सामवेद में संगीत तथा वाद्ययंत्रों की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
१४. गुरु द्रोण का गुरुकुल : द्रोणाचार्य भारद्वाज मुनि के पुत्र थे। द्रोणाचार्य के हजारों शिष्य थे। अर्जुन गुरुद्रोण के ही शिष्य थे। पांडवों के भाई अर्जुन ने गुरु द्रोण से ही धनुर्विद्या में श्रेष्ठता प्राप्त की थी। एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मिट्टी की एक मूर्ति बनाकर, उसे अपना गुरु मान कर धनुर्विद्या सीखी थी। इनके गुरुकुल में धनुर्विद्या, अस्त्र-शस्त्र निर्माण कला, चिकित्सा, ज्योतिष, वैदिक ज्ञान आदि महत्वपूर्ण विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इतिहास में इस गुरुकुल को महत्वपूर्ण बतलाया गया है।
१५. कश्यप ऋषि का गुरुकुल : कश्यप ऋषि का गुरुकुल हिमालय की तराई में स्थित था। सर्प दंश निवारण विद्या के जनक कश्यप ऋषि को माना गया है। ऋषि आयुर्वेद में निष्णात माने गए हैं। इनका गुरुकुल रोग-पीड़ा निवारण केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध था। यहाँ तंत्र-मंत्र के द्वारा विषेले जीव-जन्तु को वश में किया जाता था। आधुनिक समय में भी वनक्षेत्रों तथा हिमालय की तराई में रहने वाले तंत्र मंत्र वेत्ता के वंशज जहरीले साँप बिच्छु को अपनी मंत्र शक्ति के द्वारा वश में कर लेते हैं। यह सब कश्यप ऋषि की देन है।
१६. सांदीपनि ऋषि का गुरुकुल : यह गुरुकुल जगत् प्रसिद्ध रहा है। कृष्ण, बलराम तथा सुदामा ने इसी आश्रम में शिक्षा ग्रहण की थी। यहाँ का शिक्षण उच्च कोटि का था। यह आश्रम मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध शहर उज्जैन में आज भी अपने अवशेषों के साथ स्थित है। उज्जैन का प्रसिद्ध मौनी बाबा आश्रम समीप ही स्थित है, जहाँ आश्रम परम्परानुसार बालकों को शिक्षण दिया जाता है। सांदीपनि आश्रम में राजा से लेकर रंक तक एक समान शिक्षा प्राप्त करते थे। शिष्यगण आश्रम कार्य के लिए जंगल से लकड़ियाँ लाते थे। उज्जैन के समीप स्थित ग्राम नारायणा में आज भी कृष्ण-सुदामा द्वारा एकत्रित लकड़ियाँ रखी हुई है, जो अब वृक्ष में परिवर्तित हो गई है।
१७. महर्षि अगस्त्य का गुरुकुल : महर्षि वसिष्ठ के बड़े भाई महर्षि अगस्त्य थे। दक्षिण भारत में इन्हें आद्य व्याकरणाचार्य के सम्मान से विभूषित किया गया है। 'अगस्त्य व्याकरणÓ इनके द्वारा रचित है और इसे पाणिनी की अष्टाध्यायी के समान तमिल व्याकरणाचार्य स्वीकारते हैं। रुद्र प्रयाग जिले में अगस्त्य मुनि नामक नगर आज भी है। जावा सुमात्रा आदि देशों में महर्षि अगस्त्य का पूजन किया जाता है। महाराष्ट्र में कई स्थानों, उत्तराखण्ड तथा तमिलनाडु में इनके कई आश्रम थे। महर्षि अगस्त्य को मार्शल आर्ट का आदि गुरु माना जाता है। इन्होंने अपनी इस कला को कई शिष्यों को सिखाया। दक्षिण भारतीय चिकित्सा पद्धति के ये 'सिद्ध वैद्यमÓ कहे जाते हैं।
हमारे सभी गुरुकुल शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। अध्ययन, चिन्तन तथा मनन के लिए कोलाहल से दूर सुरम्य शान्त वातावरण की आवश्यकता होती थी। इसीलिए प्राचीन काल में जितने भी गुरुकुल होते थे वे सुन्दर प्राकृतिक वातावरण में बागबगीचे तथा वनों के मध्य होते थे। इससे गुरु और शिष्यों को अध्ययन अध्यापन में शान्त वातावरण प्राप्त होता था। जीवन निर्वाह की वस्तुएँ तथा भिक्षाटन के लिए ब्रह्मचारीगणों को घूमने पर्याप्त सुविधा थी। कुल बान्धवों से भिक्षा ग्रहण करना पूर्णतया वर्जित था। तत्कालीन राजा विद्वान पंडितों को अपने राजदरबार में सम्मेलन में निमन्त्रित करते थे। राजा दान में भूमि, गौधन आदि देते थे। जो विद्वान नगरों के आसपास बस जाते थे वहाँ शिक्षा के क्षेत्र बन जाते थे। काशी, नासिक, पाटलिपुत्र, तक्षशिला, मिथिला आदि कई नगर विश्वप्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र बन गए थे। कई प्रसिद्ध मठ शिक्षा के केन्द्र थे। सम्राट अशोक ने बौत्र विहारों की स्थापना की थी, जहाँ अनुशासनबद्ध छात्र आचार्यों से शिक्षा ग्रहण करते थे। विश्वप्रसिद्ध नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय में कई छात्र अध्ययनरत थे।
आधुनिक समय में हमारे यहाँ के प्रयोगधर्मी शिक्षाविद् गुरुकुल शिक्षा पद्धति के महत्व को स्वीकार कर उसे मूर्त रूप देने के लिए प्रयत्नशील हैं। गुजरात के उत्तमभाई ने साबरमती गुरुकुलम् की स्थापना की है। यह स्थान बौद्धिक पुनर्जागरण का केन्द्र बन चुका है। यहाँ शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय प्राचीन जीवनशैली को आत्मसात किया जा चुका है।
इंदौर जैसे प्रगतिशील नगर में भी आय.आय.टी. गुरुकुलम् की स्थापना की जा चुकी है। बारहवीं उत्तीर्ण करने के बाद जो छात्र यहाँ प्रवेश लेता है वह यहाँ के सुरम्य शैक्षणिक वातावरण से एकदम संतुष्ट दिखाई देता है। वहाँ टेलीविजन आदि की सुविधा न होने पर प्रथम तो उन्हें असहज लगता है परन्तु अल्प समयोपरान्त वातावरण से अभ्यस्त होने पर उसे अध्ययन में आनन्द आने लगता है।
अहमदाबाद के साबरमती गुरुकुलम् को जो भी देखने जाता है उनके मन में दिव्य स्पन्दन का अनुभव होता है। आय.आय.टी. दिल्ली के छात्रों ने वहाँ जाकर शैक्षणिक गतिविधियों को समझा तो वे अभिभूत हो गए। उन्हें अनुभव हुआ कि हमारी बाल्यावस्था का ज्ञान अधूरा रह गया। यहाँ पर सीखने जैसा बहुत कुछ है जिससे हम वंचित हैं। यदि हम भारतीय संस्कृति का मनमोहक दृश्य देखना चाहते हैं तो भारत के प्रत्येक मुख्यालय में एक गुरुकुलम् की स्थापना होनी चाहिए जिससे हमारी गौरवपूर्ण संस्कृति की रक्षा हो सके और भारतवर्ष पुन: विश्वगुरु के पद पर आसीन हो सके।
प्रेषक
डॉ. शारदा मेहता
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
Email : drnarendrakmehta@gmail.com
भारत में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के पूर्व परम्परागत शिक्षा पद्धति का प्रचलन था। देश के महापुरुष जिन्होंने देश ही नहीं वरन् विदेश में भी अपने बुद्धि कौशल का परचम लहराया था उन्होंने हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति से ही शिक्षा ग्रहण की थी।
यदि हम वैदिक युगीन शिक्षा की ओर दृष्टिपात करें तो सम्पूर्ण परिदृश्य ही भिन्न परिलक्षित होता है। मानव का जीवन आश्रमों में विभाजित था- १. ब्रह्मचर्य, २ गृहस्थ, ३. संन्यास, ४. वानप्रस्थ। ब्रह्मचर्य आश्रम अध्ययन के लिए निर्धारित था। शिक्षा प्राप्त करने के लिए आज के समान विद्यालय नहीं होते थे। गुरुकुल शिक्षा पद्धति का ही प्रचलन था। समाज के चार अंग थे- १. ब्राह्मण, २. क्षत्रिय, ३. वैश्य, ४. शूद्र। गुरुकुल शिक्षा पद्धति में इनमें से किसी अंग के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं था। सभी वर्ण के बालक गुरुकुल में प्रवेश ले सकते थे। किसी के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं था। सभी वर्ण के बालक गुरुकुल में प्रवेश ले सकते थे। गुरुकुल में ऊँच-नीच, जात-पात का नामोनिशान नहीं था। आधुनिक विद्यालयों के समान गुरुकुल में किसी भी प्रकार का शुल्क निर्धारित नहीं था। सम्पूर्ण शिक्षा अवधि नि:शुल्क थी। शिक्षा पूर्ण होने पर विद्यार्थीगण अपने सामर्थ्यानुसार आश्रम को दान स्वरूप भेंट देते थे। गौदान, भूमिदान, अनुदान आदि के रूप भेंट होती थी। कुछ गुरुकुल भारत ही नहीं अपितु विदेशों में ख्याति अर्जित कर चुके थे। विदेशों से शिक्षार्थी यहाँ शिक्षा ग्रहण करने आते थे और अपने देश में भारत का यशोगान करते थे। इस लेख के माध्यम से मैं अपने पाठकों का भारत के कुछ प्रसिद्ध गुरुकुलों की ओर ध्यानाकर्षण करना चाहूँगी जो अत्यन्त ही संक्षिप्त रूप में हैं-
१. महर्षि वेदव्यास का गुरुकुल : वेदव्यासजी द्वापर युग के अंत में हुए थे। इनका पूरा नाम कृष्णद्वैपायन है। इन्हें व्यास या वेदव्यास भी कहा जाता है। गुरु पूर्णिमा के विशेष दिन इनकी पूजा की जाती है। कहा जाता है कि महाभारत ग्रंथ के साथ ही इन्होंने शताधिक ग्रंथों की रचना की तथा कुछ पुराण भी इनके द्वारा रचित माने जाते हैं। इनके कुछ शिष्यों ने आश्रम स्थापित कर वैदिक शिक्षा देने का कार्य किया।
२. शौनक ऋषि का गुरुकुल : इनके गुरुकुल में दस हजार से अधिक शिष्य शिक्षा प्राप्त करते थे। इनके पिता का नाम शुनक था। इनके आश्रम में गुरुकुल का सर्वोच्च पद कुलपति होता था। आधुनिक काल में सम्पूर्ण विश्व में विश्वविद्यालय के प्रमुख को कुलपति या वाइस चांसलर कहा जाता है। आधुनिक समय की शिक्षण पद्धति तो सर्वथा भिन्न है परन्तु कुलपति शब्द शिक्षाविदों ने यहीं से ग्रहण किया है।
३. अत्रि गुरुकुल : विद्वानों की मान्यता है कि अत्रि वंश के कारण ही पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। पारसी धर्मावलम्बी अग्रिपूजक हैं। कहा जाता है कि अत्रि लोग सिन्धुपार गए थे। वे ईरान (प्राचीन नाम पारस) गए और यज्ञ का प्रचार प्रसार किया। कृषि कार्य को अत्रि ऋषि ने विकसित करने में योगदान दिया। ब्रह्मा पुत्र सोम के पिता अत्रि ऋषि थे। वे कर्दम व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। इनका आश्रम पावन चित्रकूट में था।
४. धौम्य ऋषि का गुरुकुल : धौम्य ऋषि के आश्रम के प्रमुख आज्ञाकारी शिष्यगण आरुणि और उपमन्यु की गुरुभक्ति आज भी विश्वप्रसिद्ध है। इस आश्रम में शिष्यों को तप और योग साधना में पारंगत किया जाता था। तितिक्षा और संयम की मूलभूत शिक्षा यहाँ का प्रमुख ध्येय रहा है।
५. भारद्वाज ऋषि का गुरुकुल : यह आश्रम प्रयाग में था। भारद्वाज ऋषि ने महर्षि भृगु से धर्मशास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी। उन्होंने 'भरद्वाज स्मृतिÓ की रचना की थी। भारद्वाज ऋषि वैदिक ऋषियों में सर्वोच्च स्थान पर हैं। ये विमान शास्त्र के प्रणेता थे। इनका 'यन्त्र सर्वस्वÓ बृहद् ग्रंथ प्रसिद्ध है। इस ग्रंथ में युद्ध में प्रयुक्त होने वाले विमानों के निर्माण विषयक सूत्र समीकरण उपलब्ध हैं। ऋषि भारद्वाज अर्थशास्त्र, धनुर्वेद, व्याकरण, धर्मशास्त्र, शिक्षाशास्त्र, आयुर्वेद, भौतिक विज्ञान आदि कई विषयों में असाधारण प्रतिभा के धनी थे।
६. ब्रह्मर्षि वसिष्ठ का गुरुकुल : यह गुरुकुल विश्व प्रसिद्ध था। दशरथ नंदन राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न के ये गुरु थे। वसिष्ठ के कथनानुसार ही दशरथजी ने अपने चारों पुत्रों को विश्वामित्र के आश्रम में भेजा था।
७. विश्वामित्र का गुरुकुल : यह आश्रम बकसर (बिहार) में स्थित था। यहाँ रहकर राम-लक्ष्मण ने धनुर्विद्या प्राप्त की थी। यहाँ शिक्षा प्राप्त करते हुए उन्होंने कई राक्षसों को मार गिराया।
८. महर्षि वाल्मीकि का गुरुकुल : महर्षि वाल्मीकि संस्कृत भाषा के आदि कवि माने जाते हैं। इन्होंने ही संस्कृत भाषा में 'श्री वाल्मीकि रामायणÓ की रचना की है। सीताजी ने गर्भावस्था में इसी आश्रम में निवास किया था। यहीं पर लव तथा कुश का जन्म हुआ था। वाल्मीकि ऋषि श्रीराम के समकालीन थे।
९. गौतम ऋषि का गुरुकुल : विद्वानों की मान्यता है कि गौतम ऋषि के आश्रम में श्रीराम गए थे। वहाँ श्रीराम ने पाषाण रूप में स्थित अहिल्या को अपने चरणों की रज से शापमुक्त किया था। उसने मानवी रूप धारण कर लिया था। गौतम ऋषि धनुर्वेदाचार्य भी थे और स्मृतिकार भी।
१०. परशुराम ऋषि का गुरुकुल : यह नर्मदा के तट पर स्थित था। परशुरामजी जनकजी तथा दशरथजी को बहुत सम्मान देते थे। कालान्तर में वे दक्षिण प्रदेश में चले गए और एक नए आश्रम की स्थापना की तथा शस्त्र तथा शास्त्र की शिक्षा का प्रसार किया।
११. कण्व ऋषि का गुरुकुल : इनके आश्रम में नैयायिक रहा करते थे। वे न्याय सिद्धान्त के ज्ञाता थे। इन्हीं के आश्रम में मेनका पुत्री शकुन्तला रहती थी। दुष्यन्त तथा शकुन्तला का पुत्र इसी आश्रम में सिंह शावक से खेलता था। यही भरत प्रसिद्ध सम्राट हुए। इन्हीं के नाम से हमारा देश 'भारतवर्षÓ कहलाया।
१२. कपिल मुनि का गुरुकुल : महाभारत के अनुसार कपिल मुनि सांख्य के वक्ता कहे गए हैं। इन्होंने अपनी माता को ज्ञान दिया। उसे ही सांख्य दर्शन कहते हैं। ऐसा कहा जाता है वनवास के समय राम, लक्ष्मण और सीता कपिल मुनि के आश्रम में पहुँच गए। वे तीनों थके हुए थे। उन्हें पानी की तलाश थी। कपिल मुनि के आश्रम में ही उनकी तृषा शान्त हुई।
१३. वामदेव का गुरुकुल : वामदेव को विश्व में संगीत के प्रणेता के रूप में स्वीकारा गया है। भरत मुनि का नाट्य शास्त्र सामगान से प्रेरणा लेकर ही निर्मित है। इस अति प्राचीन सामवेद में संगीत तथा वाद्ययंत्रों की सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त होती है।
१४. गुरु द्रोण का गुरुकुल : द्रोणाचार्य भारद्वाज मुनि के पुत्र थे। द्रोणाचार्य के हजारों शिष्य थे। अर्जुन गुरुद्रोण के ही शिष्य थे। पांडवों के भाई अर्जुन ने गुरु द्रोण से ही धनुर्विद्या में श्रेष्ठता प्राप्त की थी। एकलव्य ने द्रोणाचार्य की मिट्टी की एक मूर्ति बनाकर, उसे अपना गुरु मान कर धनुर्विद्या सीखी थी। इनके गुरुकुल में धनुर्विद्या, अस्त्र-शस्त्र निर्माण कला, चिकित्सा, ज्योतिष, वैदिक ज्ञान आदि महत्वपूर्ण विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इतिहास में इस गुरुकुल को महत्वपूर्ण बतलाया गया है।
१५. कश्यप ऋषि का गुरुकुल : कश्यप ऋषि का गुरुकुल हिमालय की तराई में स्थित था। सर्प दंश निवारण विद्या के जनक कश्यप ऋषि को माना गया है। ऋषि आयुर्वेद में निष्णात माने गए हैं। इनका गुरुकुल रोग-पीड़ा निवारण केन्द्र के रूप में प्रसिद्ध था। यहाँ तंत्र-मंत्र के द्वारा विषेले जीव-जन्तु को वश में किया जाता था। आधुनिक समय में भी वनक्षेत्रों तथा हिमालय की तराई में रहने वाले तंत्र मंत्र वेत्ता के वंशज जहरीले साँप बिच्छु को अपनी मंत्र शक्ति के द्वारा वश में कर लेते हैं। यह सब कश्यप ऋषि की देन है।
१६. सांदीपनि ऋषि का गुरुकुल : यह गुरुकुल जगत् प्रसिद्ध रहा है। कृष्ण, बलराम तथा सुदामा ने इसी आश्रम में शिक्षा ग्रहण की थी। यहाँ का शिक्षण उच्च कोटि का था। यह आश्रम मध्यप्रदेश के प्रसिद्ध शहर उज्जैन में आज भी अपने अवशेषों के साथ स्थित है। उज्जैन का प्रसिद्ध मौनी बाबा आश्रम समीप ही स्थित है, जहाँ आश्रम परम्परानुसार बालकों को शिक्षण दिया जाता है। सांदीपनि आश्रम में राजा से लेकर रंक तक एक समान शिक्षा प्राप्त करते थे। शिष्यगण आश्रम कार्य के लिए जंगल से लकड़ियाँ लाते थे। उज्जैन के समीप स्थित ग्राम नारायणा में आज भी कृष्ण-सुदामा द्वारा एकत्रित लकड़ियाँ रखी हुई है, जो अब वृक्ष में परिवर्तित हो गई है।
१७. महर्षि अगस्त्य का गुरुकुल : महर्षि वसिष्ठ के बड़े भाई महर्षि अगस्त्य थे। दक्षिण भारत में इन्हें आद्य व्याकरणाचार्य के सम्मान से विभूषित किया गया है। 'अगस्त्य व्याकरणÓ इनके द्वारा रचित है और इसे पाणिनी की अष्टाध्यायी के समान तमिल व्याकरणाचार्य स्वीकारते हैं। रुद्र प्रयाग जिले में अगस्त्य मुनि नामक नगर आज भी है। जावा सुमात्रा आदि देशों में महर्षि अगस्त्य का पूजन किया जाता है। महाराष्ट्र में कई स्थानों, उत्तराखण्ड तथा तमिलनाडु में इनके कई आश्रम थे। महर्षि अगस्त्य को मार्शल आर्ट का आदि गुरु माना जाता है। इन्होंने अपनी इस कला को कई शिष्यों को सिखाया। दक्षिण भारतीय चिकित्सा पद्धति के ये 'सिद्ध वैद्यमÓ कहे जाते हैं।
हमारे सभी गुरुकुल शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे। अध्ययन, चिन्तन तथा मनन के लिए कोलाहल से दूर सुरम्य शान्त वातावरण की आवश्यकता होती थी। इसीलिए प्राचीन काल में जितने भी गुरुकुल होते थे वे सुन्दर प्राकृतिक वातावरण में बागबगीचे तथा वनों के मध्य होते थे। इससे गुरु और शिष्यों को अध्ययन अध्यापन में शान्त वातावरण प्राप्त होता था। जीवन निर्वाह की वस्तुएँ तथा भिक्षाटन के लिए ब्रह्मचारीगणों को घूमने पर्याप्त सुविधा थी। कुल बान्धवों से भिक्षा ग्रहण करना पूर्णतया वर्जित था। तत्कालीन राजा विद्वान पंडितों को अपने राजदरबार में सम्मेलन में निमन्त्रित करते थे। राजा दान में भूमि, गौधन आदि देते थे। जो विद्वान नगरों के आसपास बस जाते थे वहाँ शिक्षा के क्षेत्र बन जाते थे। काशी, नासिक, पाटलिपुत्र, तक्षशिला, मिथिला आदि कई नगर विश्वप्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र बन गए थे। कई प्रसिद्ध मठ शिक्षा के केन्द्र थे। सम्राट अशोक ने बौत्र विहारों की स्थापना की थी, जहाँ अनुशासनबद्ध छात्र आचार्यों से शिक्षा ग्रहण करते थे। विश्वप्रसिद्ध नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय में कई छात्र अध्ययनरत थे।
आधुनिक समय में हमारे यहाँ के प्रयोगधर्मी शिक्षाविद् गुरुकुल शिक्षा पद्धति के महत्व को स्वीकार कर उसे मूर्त रूप देने के लिए प्रयत्नशील हैं। गुजरात के उत्तमभाई ने साबरमती गुरुकुलम् की स्थापना की है। यह स्थान बौद्धिक पुनर्जागरण का केन्द्र बन चुका है। यहाँ शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय प्राचीन जीवनशैली को आत्मसात किया जा चुका है।
इंदौर जैसे प्रगतिशील नगर में भी आय.आय.टी. गुरुकुलम् की स्थापना की जा चुकी है। बारहवीं उत्तीर्ण करने के बाद जो छात्र यहाँ प्रवेश लेता है वह यहाँ के सुरम्य शैक्षणिक वातावरण से एकदम संतुष्ट दिखाई देता है। वहाँ टेलीविजन आदि की सुविधा न होने पर प्रथम तो उन्हें असहज लगता है परन्तु अल्प समयोपरान्त वातावरण से अभ्यस्त होने पर उसे अध्ययन में आनन्द आने लगता है।
अहमदाबाद के साबरमती गुरुकुलम् को जो भी देखने जाता है उनके मन में दिव्य स्पन्दन का अनुभव होता है। आय.आय.टी. दिल्ली के छात्रों ने वहाँ जाकर शैक्षणिक गतिविधियों को समझा तो वे अभिभूत हो गए। उन्हें अनुभव हुआ कि हमारी बाल्यावस्था का ज्ञान अधूरा रह गया। यहाँ पर सीखने जैसा बहुत कुछ है जिससे हम वंचित हैं। यदि हम भारतीय संस्कृति का मनमोहक दृश्य देखना चाहते हैं तो भारत के प्रत्येक मुख्यालय में एक गुरुकुलम् की स्थापना होनी चाहिए जिससे हमारी गौरवपूर्ण संस्कृति की रक्षा हो सके और भारतवर्ष पुन: विश्वगुरु के पद पर आसीन हो सके।
प्रेषक
डॉ. शारदा मेहता
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
Email : drnarendrakmehta@gmail.com