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श्रीसीताजी का मार्मिक सन्देश श्रीराम को हनुमानजी द्वारा

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श्रीसीताजी का मार्मिक सन्देश श्रीराम को हनुमानजी द्वारा
जिन पर भगवान की कृपा होती है उनके हृदय व मस्तिष्क में संकीर्णता और भेद दृष्टि नहीं होती है। साहित्य और भक्ति के क्षेत्र में सूरदासजी के आराध्य देव श्रीकृष्ण तो हैं ही किन्तु भगवान श्रीरामजी और श्रीकृष्णजी में वे भेद नहीं रखते हैं। श्रीमद्भागवत के नवम स्कन्ध में श्रीरामचरित्र केवल दो अध्यायों में हैं, किन्तु सूरदासजी ने अपनी विशेष शैली में पूरे श्रीरामचरित का पदों में वर्णन किया है और उनका यह वर्णन अत्यन्त ही मार्मिक-भावपूर्ण, मौलिक एवं रसों से सरोबार है। सूरदासजी ने सूर-रामचरितावली में इन पदों में अत्यन्त ही हृदयस्पर्शी एवं मार्मिक वर्णन किया है। सूरदासजी के प्रसिद्ध ग्रन्थ सूर-सारावली में कुछ पदों में ही पूरे मुख्य कथा प्रसंग भी दिए गए हैं। भगवद्गीता में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी त्रेतायुग के श्रीराम के बारे में कहा है कि-
पवन: पवतामस्मि राम: शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्त्रोत सामस्मि जान्हवी।।
श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय-१०-३१
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! मैं पवित्र करने वालों में वायु और शस्त्रधारियों में श्रीराम हूँ तथा मछलियों में मगर हूँ और नदियों में श्री भागीरथी गंगाजी हूँ। श्री सूरदासजी रचित सूर-राम-चरितावली में सुन्दरकाण्ड में श्रीहनुमानजी के द्वारा श्रीजानकीजी का श्रीराम को जो सन्देश भेजा गया पढ़ने-सुनने पर एक बार तो आँखों से अश्रुओं की धारा बह निकलती है।
यह गति देखे जात, संदेसौ कैसैं कै जु कहौ?
सुन कपि! अपने प्राण को पहरौ, कब लगिदेति रहौं?
ये अति चपल, चल्यो चाहत हैं, करत न कछु बिचार।
कहि धौं प्राण कहाँ लै राखौ, रोकि देह मुख द्वार।
इतनी बात जनावति तुम सो, सकुचति हों हनुमंत।
नाहीं 'सूरÓ सुन्यौ दुख कबहुँ, प्रभु करुणा कंत।।
सूर-राम-चरितावली-सुन्दरकाण्ड-५८-८८
सूरदासजी कहते हैं कि हनुमानजी से जानकीजी ने कहा कपि! तुम मेरी यह दशा देख कर ही जा रहे हो। अब और सन्देश में किस प्रकार सुनाऊँ? बताओ? अपने प्राणों का पहरा मैं कब तक देती रहूँगी। ये प्राण तो अत्यन्त ही चंचल है। चले जाना ही चाहते हैं, कुछ भी विचार नहीं करते हैं कि इस शरीर में रहने से प्रभु का मिलन होगा। अब बताओ तो भला शरीर के मुख्य द्वारों को रोककर कब तक मैं इन्हें रोक कर रहूँ। हे हनुमान! तुमसे इतनी बात प्रकट करने में भी मुझे संकोच हो रहा है क्योंकि मेरे स्वामी करुणामय-करुणानिधान हैं, मेरे उन नाथ-स्वामी ने कभी दु:ख सुना भी नहीं है। मेरे इस दु:ख के सन्देश मिलने से उन्हें अत्यन्त कष्ट होगा।
कहियौ कपि! रघुनाथ राज सौं, सादर यह इक बिनती मेरी।
नाहीं सही परति मौपे अब, दारुन त्रास निशाचर केरी।।
यह तौ अंध बीसहूँ लोचन, छल-बल करत आनि मुख हेरी।
आइ सृगाल सिंह-बलि चाहत, यह मरजाद जाति प्रभु तेरी।।
जिहिं भुज पर सुराम-बल करष्यौ, ते भुज क्यों न सँभारत फेरी।
'सूरÓ सनेह जानि करुणामय, लेहु छुड़ाइ जानकी चेरी।।
सूर-राम-चरितावली सुन्दरकाण्ड ५८-८९
सूरदासजी कहते हैं- श्रीजानकीजी ने हनुमानजी से कहा कपि! महाराज श्रीरघुनाथजी से मेरी यह एक प्रार्थना आदर सहित सुना देना कि राक्षस रावण का दारुण त्रास अब मुझसे सहा नहीं जाता। यह रावण तो बीसों नेत्रों से अंधा है अर्थात् सर्वथा विवेकहीन है, आकर मेरा मुख देखकर अनेक प्रकार के छल-बल करता है। यह सिआर आकर सिंह का भाग चाहता है, प्रभो। यह तो आपकी मर्यादा जा रही है। जिस भुजाओ के बल से आपने परशुरामजी का बल भी खींच लिया था तथा उनके गर्व को नष्ट कर दिया। अब अपनी भुजा के उसी बल को पुन: क्यों नहीं बताते हैं? हे करुणामय! मेरा प्रेम समझकर मुझे यहाँ से छुड़ा लो। यह जानकी आपकी दासी है।
मैं परदेसिनी नारि अकेली।
बिनु रघुनाथ और नहिं कोऊ, मातु-पिता न सहेली।।
रावन भेष धरयौ तपसी कौ, कत मैं भिच्छा मेली।
अति अज्ञान मूढ़ मति मेरी, रामरेख पग पेली।।
बिरह-ताप तन अधिक जरावत, जैसैं दव-द्रुम बेली।
'सूरदासÓ प्रभु बेगि मिलाओ, प्रान जात है खेली।।
सूर-राम-चरितावली सुन्दरकाण्ड ५८-९०
सूरदासजी कहते हैं कि श्रीजानकीजी हनुमानजी से कह रही हैं- मैं दूसरे देश की रहने वाली अर्थात् लंका के लोगों से अपरिचित अकेली स्त्री हूँ। माता-पिता या सहेली-सखियों आदि मेरा श्रीरघुनाथजी को छोड़कर और कोई आश्रम नहीं है। रावण ने पंचवटी में तपस्वी का वेष धारण कर लिया था, किन्तु मैंने उसे भिक्षा क्यों दी? मैं अज्ञानी हूँ, मेरी बुद्धि मूढ़ है जो कि श्रीलक्ष्मणजी द्वारा रामनाम से अभिमंत्रित रेखा का उल्लंघन कर दिया। जैसे वन में दावाग्नि वृक्षों एवं लताओं को जला कर भस्म (राख) कर देती है वैसे ही प्रभु के वियोग का संताप मेरे शरीर को अत्यन्त जला रहा है। मेरे प्राण खेले जा रहे हैं, मुझे शीघ्र प्रभु से मिला दो।
हनुमानजी ने कहा माता अब आप दु:खी न हो। श्रीरघुनाथजी कहीं दूर नहीं है। अब आप भूलकर भी चित्त में चिन्ता न करें। मैं तो सब शत्रुओं को मारकर आपको अभी साथ ले जा सकता हूँ किन्तु प्रभु श्रीरामजी की आज्ञा के अपमान से डरता हूँ। प्रभु ने बाण की तीक्ष्ण नोक को संभाल कर सान चढ़ाकर रखा है, मैं उस बाण को कैसे निष्फल करूँ। श्रीराम रावण के दस सिर, बीस हाथ भुजाओं सहित काटेंगे। प्रभु शत्रु के सन्तानों के साथ नष्ट करके आपके नेत्रों को मंगलमय दर्शन देंगे। मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि इन्हीं कुछ दिनों में कृपानिधान प्रभु को ले आऊँगा। ऐसा कहकर श्रीहनुमान्जी ने सीताजी को उनके दु:ख को कम करने का कार्य किया।

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