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कोरोना काल में भारतीय संस्कृति के दर्शन

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कोरोना काल में भारतीय संस्कृति के दर्शन
हमें हमारी भारतीय संस्कृति पर गर्व है। कोरोना काल में यह बात शत प्रतिशत सही हो गई है। हमारी सनातन संस्कृति हमें वे सभी बातें सदियों पूर्व हमारे वृद्धपूर्वज सिखलाते आ रहे हैं। कोरोना काल में हम प्रत्येक व्यक्ति को बतला रहे हैं कि बार-बार हाथ साबुन से धोइए। प्राचीन समय में सदियों पूर्व मिट्टी का उपयोग हाथ धोने के लिए किया जाता था। आज बाहर से जब हम घर वापस आते हैं तो स्नान करना और बाहर के कपड़े धोना आवश्यक हो गया है। प्राचीन समय में भी घर में आने के बाद स्नान किया जाता था। यदि आप बस या ट्रेन से यात्रा करके आते थे तो स्नान करना अनिवार्य था और साथ में लाए गए सामान को अलग रख कर धूप में सुखाया जाता था। कोरोना काल में घर में प्रवेश करते ही पैर, हाथ धोते हैं और सेनेटाइज करते हैं। बाजार से लाए गए फल सब्जियों को सोड़ा बाय कार्ब और नमक के पानी से धोया जाता है। एक-दो दिन बाद ही खाने में इनका उपयोग किया जाता है। किराना सामान को भी धूप में तीन चार दिन रखकर डेटाल आदि से पोछकर ही उपयोग किया जाता है।
कोरोना काल में हमारे सामाजिक और पारिवारिक कार्यक्रमों का स्वरूप बदल गया है। वैवाहिक कार्यक्रमों में जहाँ हजारों या सैकड़ों अतिथियों को निमन्त्रित किया जाता था, वहाँ अब पच्चीस-पचास व्यक्तियों को ही निमन्त्रित किया जाता है। यदि किसी की मृत्यु कोरोना से नहीं हुई है तो उसकी शव यात्रा में १५-२० व्यक्ति से अधिक व्यक्ति नहीं आ सकते हैं। यहाँ तक कि एकदम करीबी रिश्तेदार भी शोक सतंप्त परिवारों से दूरी बनाए रखते हैं और फोन के माध्यम से ही अपनी संवेदनाओं को व्यक्त करते हैं। वरिष्ठ नागरिकों को तो इन परम्पराओं से दूर रहने की ही सलाह दी जाती है जिससे वे भीड़ से दूर रह सकें और संक्रमित न हों।
कोरोना काल में गर्म पानी पीना, आयुर्वेदिक काढ़े का उपयोग, हल्दी का दूध, अदरक मिश्रित चाय, आयुर्वेदिक गोलियाँ आदि का उपयोग अत्यधिक किया जा रहा है। शासन की ओर से भी आयुर्वेदिक काढ़े का वितरण नि:शुल्क किया गया। प्रत्येक घर से इस बात की जानकारी ली गई कि कहीं कोई बुखार, खाँसी तथा जुकाम से पीड़ित तो नहीं है। हाथ में दस्ताने, मुँह पर मास्क तथा जेब में सेनेटाइजर की छोटी शीशी रखना एक आदत सी बन गई। कोविड शील्ड का उपयोग भी खूब किया जाने लगा। हर घर में सेनेटाइजर का स्टैंड रख कर आने जाने वालों को हाथ सेनेटाइज करना अनिवार्य हो गया। दरवाजे, खिड़की या अन्य किसी सामान को हाथ लगाने पर झागदार साबुन से हाथ धोना अनिवार्य आदत बन गई है।
हमारी सनातन संस्कृति वैदिक काल से ही हमें अनुशासित जीवन व्यतीत करने का सन्देश देती आ रही है और उसका बीजारोपण इतना गहरा है कि आज भी हम भारतवासी विदेशों में भी अपनी सभ्यता को भूले नहीं हैं। जब भी हम किसी से भेंट करते हैं तो आपस में हाय! हलो! करके हाथ मिलाते नहीं है वरन् नमस्ते कह कर अपने हाथ जोड़ते हैं। हमारी अभिवादन करने की यह आदत सर्वश्रेष्ठ है। हम गले नहीं मिलते। एक-दूसरे का चुम्बन नहीं लेते। प्राचीन काल में घर से बाहर निकलने पर महिलाएँ घूँघट लेती थी। वह भी मास्क का ही कार्य करता था। अतिथि के आगमन पर हम उनके पाद-प्रक्षालन करते थे। दरबार में आमन्त्रित ऋषि-मुनियों का स्वागत करने के पूर्व उनके पैर धोए जाते थे। कवि नरोत्तम दास मिश्र 'सुदामा चरित्रÓ में लिखते हैं-
'पानी परात को हाथ छुयो नहीं, नैनन के जलसे पग धोये।
देखि सुदामा की दीन-दशा करुणा करी कै करुणानिधि रोये।।
जब भगवान श्रीकृष्ण के बाल सखा उनसे मिलने द्वारिका पहुँचे तो उनके पैर धोने के लिए परात में पानी लाया गया। किन्तु श्रीकृष्ण की स्थिति देखिए कि अपने मित्र की दीनहीन हालत देखकर उनकी आँखों से ऐसी अश्रुधारा प्रवाहित हुई कि परात का पानी वैसा ही रखा रह गया।
हमारे दैनिक जीवन में इस महामारी का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है। लॉकडाउन के कारण बच्चों का विद्यालय जाना रूक गया है। वे ऑनलाइन पढ़ाई करते हैं। देर रात तक जागते हैं और सुबह आठ बजे तक उठते हैं। आँखों में सुस्ती और शारीरिक आलस्य स्पष्ट दिखलाई देता है। सुबह ६ बजे के पूर्व उठने का क्रम बदल गया है। शारीरिक श्रम का अभाव, खेलकूद की न्यूनता ने उनकी पाचन क्रिया को क्षीण कर दिया है। गृहिणियाँ भी ज्यादा व्यस्त हो गई हैं क्योंकि उनके गृह कार्य बढ़ गए हैं। कामवाली बाईयों के नहीं आने से बर्तन साफ करना, झाडू देना, डस्टिंग और पोछा जैसे आवश्यक कार्य करना पड़ रहे हैं। सारा दिन व्यस्त रहना पड़ता है। माताएँ दिनभर किचन में विभिन्न प्रकार के सुस्वादु पदार्थ बनाने में रत रहती हैं। सब्जियों में स्वाद का अभाव है कारण सोड़ा तथा नमक से धोने से व दो तीन दिन रखने से वे अपना रंग व स्वाद खो देती हैं। विभिन्न प्रकार के मसाले भी उनको स्वादिष्ट नहीं बना पाते हैं। हम स्वादिष्ट थालियों की सुगन्ध व स्वाद खोते जा रहे हैं।
होटलों में अधिकांश संध्या व्यतीत करने वाले परिवार अब घरों में बंद हैं और बड़ी व्यग्रता से कोरोना महामारी के समाप्त होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। शॉपिंग के लिए मॉल बन्द हैं, मनोरंजन के लिए मल्टिफ्लेक्स, सिनेमाघर बन्द हैं, किटी पार्टी भी सम्भव नहीं हैं। ब्यूटी पार्लर, जिम, स्विमिंग पूल, पार्क आदि भी बन्द हैं। मनोरंजन के लिए घरों में ही चंग, अष्ट, पे, साँप सीढ़ी, चौपड़, पाँचें, पउआ आदि खेल खेले जा रहे हैं।
विद्यालयों में तथा कॉलेजों में ऑनलाइन क्लासेस प्रारम्भ है। विद्यार्थीगण घंटों मोबाइल व लेपटॉप पर आश्रित हैं। क्लास की उपस्थिति इन डिवाइस पर ही सम्भव है। बच्चों के चश्मे के नम्बर बढ़ रहे हैं। आँखों में जलन, सिरदर्द तथा आँखों में खुजली होना और पानी आना जैसी शिकायत बढ़ रही हैं। बालक तथा पालकगण भी विवश हैं। खेलते मुस्कुराते बच्चों के चेहरे मुरझा रहे हैं। उनका भविष्य संकट में है। जिन बच्चों ने भविष्य के सुनहरे स्वप्न देख रखे हैं, वे व्यथित हैं।
हर क्षेत्र में बेरोजगारी बढ़ रही है। सोशल डिस्टेंसिंग का पालन स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए अति आवश्यक है। कोरोना की चेन टूटना आवश्यक है। अभी भी कोरोना से प्रभावितों की संख्या कई क्षेत्रों में बढ़ती दिखलाई दे रही है। निम्न आय वाले व्यक्ति जैसे घरों में काम करने वाली बाईयाँ, सड़क किनारे सामान बेचने वाले लोग, ठेले वाले आदि को अधिक नुकसान न हो अत: उन्हें वस्त्र, अन्न आदि देते रहना चाहिए। यदि सम्भव हो तो आर्थिक सहायता भी करना चाहिए।
व्यक्ति के पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों में भी शिथिलता आ रही है। पारिवारिक कार्यक्रम में भी अधिक संख्या में रिश्तेदार उपस्थित नहीं होते हैं। वृद्धजन अपने-अपने घरों में ही सिमट कर रह रहे हैं। उनके समवयस्कों के साथ होने वाली चर्चाएँ अब रुबरु नहीं हो सकती है। उनका पार्क में घूमना फिरना, सामाजिक तथा पारिवारिक दायित्व सब कुछ थम सा गया है। उनके जीवन में शून्यता, उदासी तथा एकाकीपन आ गया है। इससे मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही है। एकमात्र मोबाइल फोन ही एक ऐसा साधन है जो उन्हें मित्रों और पारिवारिक सदस्यों से जोड़े रखता है। वीडियोकॉल से वृद्धजन अपने रिश्तेदारों के सदस्यों के चेहरे देखकर अपने सूने जीवन में जीवटता की अनुभूति करते हैं। परिवार के सदस्यों को चाहिए कि उनकी मानसिकता को समझें और मनोवैज्ञानिक आधार पर उनसे चर्चा कर उनके मनोरंजन का ध्यान रखें।
कोरोना काल में हम अपने स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा सजग हो गए हैं। अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए दादी-नानी द्वारा बताए गए चूर्ण, काढ़े, जड़ी बूटियों से बनने वाली औषधियों का सेवन करने लगे हैं। आयुर्वेद की ओर हमारा रुझान बढ़ता जा रहा है। योग के माध्यम से भी मानव कोरोना को मात देने में लगा हुआ है। हमारी खान पान की आदतें भी देशी भोजन को ज्यादा महत्व देने लगी हैं। मुँह पर मास्क लगाना और दो गज की दूरी बनाए रखना अब हमारी आदत में सम्मिलित हो गया है। अफसोस इस बात का है कि तीज त्यौहार के अवसर आज भी भीड़ इकट्ठी हो जाती है जो सभी के लिए घातक है। मकर संक्रान्ति का पर्व इस बात का प्रमाण है। नदियों में स्नान करना एक धार्मिक आस्था है, पर इसमें डिस्टेंसिंग का पालन करना सम्भव नहीं है। हम याचकों को दान दें। कंबल, अन्नदान, वस्त्र दान करें यह तो कोरोना में एक सहायता का ही प्रतीक है।
इस वर्ष अनेक महिलाओं ने अधिक से अधिक विभिन्न प्रकार के मास्क तथा दस्ताना खरीदकर मकर संक्रान्ति का दान किया है जो एक अच्छी पहल है। बस्तियों में जाकर मास्क का दान करना कोरोना से दूर रहने का एक सार्थक प्रयास है जो स्तुत्य है और अनुकरणीय भी है। इससे कुटीर उद्योग को भी फलने-फूलने में सहायता मिलती है।
वर्ष २०२० व्यतीत हो चुका है। २०२१ का स्वागत हमने इस आशा के साथ किया है कि अब कोरोना महामारी के रूप में नहीं फैलेगा। इस वर्ष सोलह जनवरी से लगने वाले टीके एक आशा की किरण लेकर आए हैं। सर्वप्रथम यह टीका स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों को लगा है, जिसमें चिकित्सक भी शामिल हैं। इसके पश्चात सफाई कर्मियों तथा डाककर्मियों को भी यह टीका सर्वप्रथम लगेगा। इस टीके से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ेगी। वेक्सीन के बाद भी मास्क लगाना और दो गज की दूरी बनाना आवश्यक रहेगा।
आरोग्यं परमं भाग्यं स्वास्थ्यं सर्वार्थसाधनम्।

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