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श्रीरामचरितमानस-शिक्षा की प्रासंगिकता

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श्रीरामचरितमानस-शिक्षा की प्रासंगिकता
संस्कृत साहित्य में आदि महाकवि वाल्मीकिजी ने रामायण की रचना कर सर्वप्रथम श्रीरामकथा को एक विस्तृत आयाम दिया है। यह हमारा दुर्भाग्य रहा कि धीरे-धीरे संस्कृत भाषा हमसे दूर होती चली गई। गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामकथा को जनमानस की जनभाषा में सरल-सुबोध भाषा में प्रकट कर भारतीयों में घर-घर पारायण करने की श्रद्धा-भक्ति उत्पन्न कर दी। इस प्रकार श्रीरामचरितमानस ने भारतीयों में समरसता-सद्भाव एवं राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य किया। आधुनिक सन्दर्भ में श्रीरामचरितमानस की प्रासंगिकता अपना अपूर्व स्थान रखती है। तुलसीदासजी की श्रीरामचरितमानस आज भारत में ही नहीं अपितु विश्वभर में जन-जन के मन-मस्तिष्क एवं हृदय में समाकर प्रासंगिक हो गई है।
तुलसीदासजी के समय में जातिप्रथा के गुणों की अपेक्षा दुर्गुणों का बाहुल्य था। अत: उन्होंने इन्हें समाप्त करने का भागीरथ प्रयास कर मानस में अनेक प्रसंगों के माध्यम से समाज-देश दिया जिसकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। गोस्वामी तुलसीदासजी का जन्म ब्राह्मण वंश में हुआ था, किन्तु वे उस समय के ब्राह्मणवाद की संकीर्ण मान्यताओं में विश्वास नहीं रखते थे। इस कारण उन्होंने काशी में अनेक पंडितों का विरोध झेलना पड़ा तथा उस समय काशी में उनका विरोध भी किया गया।
भरतजी एवं निषादराज प्रसंग
यदि हम भरतजी एवं निषादराज के मिलन के प्रसंग को देखते हैं तो हम तुलसीदासजी के विचारों-भावनाओं को ठीक-ठीक समझ सकते हैं। निषादराज का जन्म निम्न कुल (वंश) में हुआ था तथा उस समय उसकी जीवन वृत्ति का साधन भी पवित्र समाज में उचित नहीं माना जाता था। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भरतजी के विषय में यह कहकर कि संसार में भरत का जन्म न होता तो पृथ्वी पर सम्पूर्ण धर्मों की धुरी कौन धारण करता? यथा-
जौ न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धुर धरनि को।।
कवि कुल अगम भरत गुन गाथा। की जानई तुम्ह बिनु रघुनाथा।।
श्रीरामचरितमानस अयोध्याकाण्ड २३३-१
भरत सरिस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही।।
श्रीरामचरितमानस अयोध्याकाण्ड २१८-४
भरतजी के सम्बन्ध में तुलसीदासजी का कथन है कि यदि संसार में भरत का जन्म न होता तो पृथ्वी पर सम्पूर्ण धर्मों की धुरी कौन धारण करता? गुणों की कथा (वर्णन) हे राम! आपके अतिरिक्त कौन जान सकता है? इसका तात्पर्य यह है कि भरत के चरित्र को श्रीराम ही समझते थे यहाँ भी लक्ष्मण जी भी उनके चरित्र की महिमा न समझ सके। तुलसीदासजी ने भरत जी के चरित्र की महिमा का वर्णन करते हुए कहा है कि सारा जगत् श्रीराम को जपता है, वे श्रीराम जिनको जपते हैं उन भरतजी के समान श्रीराम का प्रेमी कौन होगा?
निषादराज एवं भरतजी के भेंट (मिलन) का प्रसंग हमें यह स्पष्ट संकेत देता है कि भरतजी के विचारों जाति भेदभाव नहीं था-
राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा।
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई। कीन्ह जोहारु माथ महि लाई।।
दोहा- करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेमु न हृदयँ समाई।।
श्रीरामचरितमानस अयोध्याकाण्ड ४-१९३ एवं १९३
भरतजी ने यह जानकर कि निषादराज श्रीराम का मित्र है बस इतना सुनते ही उन्होंने रथ त्याग दिया। वे रथ से उतरकर प्रेम में डूबकर चले। निषादराज गुह ने अपना गाँव, जाति और नाम सुनाकर धरती पर माथा टेककर जोहार की। निषादराज को दण्डवत करते देखकर भरतजी ने उसे उठाकर अपनी छाती से लगाया। हृदय में प्रेम नहीं समाता है। मानो स्वयं लक्ष्मणजी से भेंट हो गई हो।
भरतजी के मन-मस्तिष्क में कोई उच्च-नीच का भाव कभी नहीं था। इस तथ्य की पुष्टि सामान्य मनुष्य तो क्या देवताओं ने भी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर क्या किया? यह देखते ही बनता है यथा-
भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती। लोग सिहाहिं प्रेम कै रीति।
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला।।
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा।।
तेहिं भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलत पुलक परिपूरित गाता।।
श्रीरामचरितमानस अयोध्या १-२-१९४
भरतजी ने निषादराज (गुहराज) को अत्यन्त ही प्रेम से गले लगा लिया। प्रेम की रीति को सब लोग सिहार रहे हैं। ईर्ष्यापूर्वक प्रशंसा कर रहे हैं। मंगल की मूल धन्य-धन्य की ध्वनि करके देवता उसकी सराहना करते हुए फूलों की वर्षा कर रहे हैं। देवतागण आगे कहते हैं कि जो लोक और वेद दोनों में सब प्रकार से नीचा माना जाता है, जिसकी छाया के छू जाने से भी स्नान करना होता है, उसी निषादराज को छाती से, गले से लगाकर (हृदय से चिपकाकर) श्रीराम के छोटे भाई भरतजी (आनन्द एवं प्रेमवश) शरीर में पुलकावली परिपूर्ण हो मिल रहे हैं। समरसता का इससे श्रेष्ठ उदाहरण श्रीरामचरितमानस में देखने-पढ़ने को प्राप्त होता है।
निषादराज का कथा प्रसंग यहाँ समाप्त नहीं होता है क्योंकि इस प्रसंग को समझने के पूर्व भरतजी के गुरु महर्षि वसिष्ठजी एवं निषादराज के भेंट का प्रसंग समरसता-सामाजिक समानता का जीवन्त उदाहरण है। महर्षि वसिष्ठजी ने भरत जैसा शिष्य देश को दिया तो उनके गुरु के रूप में उनका स्थान सर्वोच्च था यथा-
प्रेम पुलकि केवट कहि नामु। कीन्ह दूरि ते दण्ड प्रनामु।।
रामसखा रिषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेट।।
रघुपति भगति सुमंगल मूला। नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला।।
एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं। बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं।।
श्रीरामचरितमानस अयोध्या २४३-३-४
जेहि लखि लखनहु ते अधिक मिले मुदित मुनिराउ।
श्रीरामचरितमानस अयोध्या ३४३
निषादराज ने महर्षि वसिष्ठजी को फिर प्रेम से पुलकित होकर अपना नाम लेकर दूर से ही वसिष्ठजी को दण्डवत किया। महर्षि वसिष्ठजी ने रामसखा (श्रीराम के मित्र) जानकर उसको बरबस (जबर्दस्ती) हृदय से लगा लिया। ऐसा लगा मानो भूमि पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो। दूसरी ओर यह प्रसंग (दृश्य) देखकर श्रीराम की भक्ति सुन्दर मंगलों का मूल है। इस प्रकार कहकर सराहना (प्रशंसा) करते हुए देवता आकाश से फूलों की वर्षा करने लगे तथा वे कहने लगे कि जगत में इसके (निषादराज के) समान सर्वथा नीच कोई नहीं है और वसिष्ठजी के समान बड़ा कौन हो सकता है? जिस निषादराज को देखकर मुनिराज वसिष्ठजी लक्ष्मण से भी अधिक उससे आनन्दित होकर मिले। इस प्रकार वसिष्ठजी की दृष्टि में ऊँच-नीच-छुआछूत अथवा सामाजिक असमानता का तिल भर भी प्रभाव नहीं था। वे समाज में अस्पर्शता से दूर तथा समरसता का पाठ पढ़ाने वाले श्रीराम के गुरु थे।
श्रीराम-शबरी कथा प्रसंग
उदार श्रीराम कबन्ध को सद्गति देकर शबरी के आश्रम में गए। श्रीराम के शबरी के आश्रम में पहुँचने पर उसे मुनि मतंग के वचनों की स्मृति हो गई। वह प्रसन्नता से फिर क्या हुआ?
सरसिज लोचन बाहुबिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला।
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।।
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिरनावा।।
सादर जल लै चरन पखारै। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।
दोहा- कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।।
पानि जोरि आगे भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी।
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी।।
श्रीरामचरितमानस अरण्य काण्ड ३४-४-५-३४ तथा ३५-१
कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजावाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुन्दर साँवले तथा गोरे दोनों भाईयों के चरणों में शबरी लिपट पड़ी। शबरी श्रीराम के प्रेम में मग्न हो गई, उसके मुख से वचन नहीं निकलता है। बारम्बार श्रीराम के चरण कमलों में शीश नवाती है फिर जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाईयों के चरण धोकर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया। शबरी ने अत्यन्त ही रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्रीराम को दिए।
प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके प्रेम सहित खाया। शबरी ने फिर कहा हे प्रभु! मैं नीच जाति की अत्यन्त मन्दबुद्धि की स्त्री हूँ। श्रीराम ने कहा- हे भामिनी। मेरी बात सुनो। मैं तो केवल एक भक्ति ही का सम्बन्ध मानता हूँ। जाति-पाँति, कुल धर्म, बल, कुटुम्ब गुण और चतुरता इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है जैसे जलहीन बादल दिखाई देता है। श्रीराम ने समरसता तथा बिना भेदभाव के साथ नवधा भक्ति शबरी को बताकर उसे एक नारी के रूप में आदर्श स्थापित किया। इस कथा प्रसंग से यह प्रमाणित होता है कि श्रीराम के समक्ष ऊँच-नीच, गरीब-अमीर एवं पुरुष-नारी में भेद रखने की भावना लेशमात्र नहीं थी।
तुलसीदासजी वर्ण के आधार पर मानव-मानव में दूरी समाप्त करने के कट्टर समर्थक ही नहीं, एक समाजसुधारक भी थे। तुलसीदासजी सामाजिक एकता के परिप्रेक्ष्य में आज भी प्रासंगिक है। उनकी श्रीरामचरितमानस एवं साहित्य भविष्य में आने वाली पीढ़ियों का मार्ग प्रशस्त करता रहेगा। अंत में हमें अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔघजी का कथन सदैव स्मरण करते रहना चाहिए।
कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।

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