श्रीलक्ष्मणजी और उर्मिलाजी द्वारा सेवा भाव
Feb 23, 2021, 16:35 IST
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श्रीलक्ष्मणजी और उर्मिलाजी द्वारा सेवा भाव
श्रीरामकथाओं में श्रीलक्ष्मणजी का एवं उनकी पत्नी उर्मिलाजी का चरित्र अद्वितीय एवं अनुपम है। श्रीरामकथाओं में उर्मिलाजी के चरित्र का वर्णन लगभग नहीं के बराबर है। उर्मिलाजी का संवाद रामायण के किसी भी पात्र से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता है। इसके उपरान्त भी उर्मिलाजी का मौन रहना ही उनके चरित्र का पूरा-पूरा वर्णन कर देता है। अनेक कवियों ने उर्मिलाजी के दु:ख को समझा तथा उसका अपूर्व वर्णन अपनी कविताओं के माध्मय से किया है। उर्मिलाजी का चरित्र त्याग की कठोर चौदह वर्ष की तपस्या है। वे एक भारतीय सच्ची पतिव्रता नारी है। लक्ष्मणजी के वन में जाने का सुनकर उन्होंने उनके साथ वन में जाने का हठ नहीं किया। जबकि सीताजी ने श्रीराम के समझाने के बाद भी वन में जाने हेतु हठ किया-
जौं हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा।।
काननु कठिन भयकरु भारी। घोर धामु हिम बारि बयारी।।
श्रीरामचरितमानस अयो. ६२-२
हे वामा (सीता)! यदि प्रेमवश हठ करोगी तो तुम परिणाम में दु:ख पाओगी। वन का जीवन बड़ा कठिन (दु:खदायी) और भयानक है। वहाँ की धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक है। श्रीराम द्वारा इतना सब कुछ कहने के बाद भी सीताजी ने हठ नहीं छोड़ा तथा वन में श्रीराम के साथ गई। सीताजी के हठ को श्रीराम को मानना पड़ा क्योंकि श्रीराम जानते थे कि सीताजी के वन में साथ जाने के बाद ही राक्षसों का तथा रावण का वध सम्भव होगा। ससुर दशरथजी ने भी मन्त्री सुमन्त्रजी के द्वारा सीताजी को वन में न जाने का सन्देश भेजा था-
पितृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहुँ जहाँ रुचि होई तुम्हारी।।
एहि बिधि करेहु उपाय कदंवा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा।।
श्रीरामचरितमानस अयो. ८२-३
कभी पिता (जनकजी) के घर कभी ससुराल, जहाँ तुम्हारी इच्छा हो वहाँ रहना। इस प्रकार बहुत से उपाय करना। यदि सीताजी लौट आई तो मेरे प्राणों को सहारा हो जाएगा। श्रीराम ने भी लोक शिक्षा, पतिव्रता के परम आदर्श की स्थापना और पत्नी के प्रति कर्तव्य के आदर्श समाज में शिक्षा के लिए सुमन्त्रजी ने राजा दशरथजी का सन्देश सुनाया किन्तु विधि का विधान कुछ और ही था। वास्तव में श्रीराम वन में सीताजी को ले जाना ही चाहते थे क्योंकि उनके वन में गए बिना रावण अपराधी नहीं बनता और ऐसे हुए बिना उसकी मृत्यु असम्भव थी क्योंकि श्रीराम का अवतार इस हेतु ही हुआ था। श्रीसीताजी साक्षात् जगन्नायिका और श्रीराम सच्चिदानन्दन जगदीश्वर थे। माता सीताजी भी भला उनसे अलग कैसे रह सकती थी?
लक्ष्मणजी के समक्ष उर्मिलाजी ने वन में उनके साथ जाने के हठ का कहीं वर्णन प्राप्त नहीं है। उर्मिलाजी सीताजी की छोटी बहिन थी, परम पतिव्रता थी। बड़ी बहिन सीताजी जैसे ही अपने स्वामी (पति) श्रीराम में अनुरक्ता और सेवा व्रतधारिणी थी वैसे ही उर्मिला भी सीता के पद चिन्हों पर चलने वाली कर्तव्यपरायणा एवं पतिव्रता स्त्री थी। उर्मिलाजी भी सीताजी की भाँति ही लक्ष्मणजी के साथ जाने के लिए प्रेमाग्रह कर सकती थी किन्तु उनके अयोध्या में रहने से श्रीरामजी के क्रियाकलापों में सुविधा थी, जिसमें सेवक बनकर रहना उनके पति का एक मात्र लक्ष्य और धर्म था। इसमें उर्मिलाजी पूर्ण सहमत तथा सहायिका थी। ऐसा कई श्रीरामकथाओं में वर्णन प्राप्त होता है कि इन्द्रजित मेघनाद को वरदान प्राप्त था कि जो महापुरुष चौदह वर्ष लगातार कुछ भी नहीं खायेगा, इतने ही वर्ष निद्रा का त्याग और अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करेगा। उसी के हाथों से मेघनाद का वध होगा। बंगला कृतिवास रामायण में लक्ष्मणजी के लिए चौदह वर्ष नींद-नारी-अनाहारी होने से मेघनाद के वध का यह रहस्य बड़े ही विस्तारपूर्वक उत्तरकाण्ड में दिया गया है। इन तीनों बातों का रहस्य भी श्रीराम के राज्याभिषेक उपरान्त उन्हें भी ज्ञात हुआ है।
जिस प्रकार रावण-वध में कारण बनने के लिए सीताजी का श्रीराम की लीला में सहयोगी बनकर वन में जाना नितान्त आवश्यक था, वैसे ही लक्ष्मणजी का भी श्रीराम जी की लीला में सम्मिलित होने के लिए ये तीन महाव्रत चौदह वर्ष नींद नहीं लेना, अनाहारी होना एवं अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने से ही मेघनाद वध के लिए वन में जाना आवश्यक था। वैसे ही उर्मिलाजी को भी श्रीराम की लीला को सुचारू रूप से सम्पन्न कराने के लिए ही जो व्रत था। वह उर्मिलाजी को अयोध्या (घर) में रहना आवश्यक था। यदि उर्मिलाजी लक्ष्मणजी के साथ वन को जाती तो इस महाव्रत का पालन कठिन था तथा मेघनाद का वध अत्यन्त ही कठिन था।
कुछ लोगों का मत है कि लक्ष्मणजी बड़े निष्ठुर थे। श्रीराम तो सीताजी को वन में साथ ले गए, किन्तु लक्ष्मणजी ने वन गमन के पूर्व अपनी पत्नी उर्मिला से वार्तालाप भी नहीं किया। गम्भीरतापूर्वक इस प्रसंग पर विचार किया जाए तो लक्ष्मणजी एवं उनकी पत्नी उर्मिलाजी का एक ही धर्म श्रीराम कीसेवा करना था। लक्ष्मणजी उर्मिलाजी के स्वभाव को अच्छी तरह जानते थे कि वह पतिव्रता है, उसे पति के प्रसन्न रहने और श्रीराम की सेवा में रत रहना चाहते हैं। अत: उन्होंने लक्ष्मणजी के साथ वन में जने हेतु कभी भी दुराग्रह नहीं किया। माता सुमित्रा और उर्मिला धर्मपरायणा वीरांगनाएँ हैं जिन्होंने प्रसन्नतापूर्वक लक्ष्मणजी के वनगमन के मार्ग में बाधाएँ खड़ी नहीं की। श्रीरामकथाओं में अवश्य ही उर्मिला लक्ष्मणजी के वनगमन पर कुछ नहीं बोली किन्तु वहाँ न तो बोलने का अवकाश था और न ही धर्म नित्य हार्दिक सम्मति होने के कारण बोलने की आवश्यकता ही थी न मर्यादा ही। ऐसी आज्ञा देती थी। संसार में देखा जाए तो सेवा धर्म में तत्पर नि:स्वार्थ सेवक को तत्काल करने योग्य प्रबल मनचाहा सेवाकार्य सामने आ पड़ने पर सलाह-परामर्श के लिए न तो अवकाश होता है और न ही उसकी सहधर्मिणी पत्नी भी इसमें दु:ख मानती है, क्योंकि वह अपने पति की मनोदशा से भलिभाँति परिचित होती है। अत: वह पति के प्रत्येक कार्य को स्वीकार कर अनुमोदन कर देती है।
लक्ष्मणजी के श्रीराम की सेवाभाव के कार्य पर विचार करें तो देखते हैं कि सेवक सदा परतन्त्र होता है। स्वामी श्रीराम तो स्वतन्त्र थे वे अपने साथ सीताजी को ले गए, परन्तु परतन्त्र सेवा परायण लक्ष्मणजी यदि उर्मिला को साथ ले जाना चाहते तो यह अनुचित सिद्ध होता क्योंकि लक्ष्मणजी को श्रीरामजी की सम्मति उर्मिला को साथ ले जाने की लेना होती। श्रीरामजी उर्मिला को वन में सीताजी के साथ ले जाने पर आपत्ति कर देते। यह बात सर्वमान्य है कि जो कार्य स्वामी की रुचि के प्रतिकूल हो उसको उसे एक सच्चे सेवक को कभी भी नहीं करना चाहिए। उर्मिला परम पवित्र पतिव्रता थी वह बात लक्ष्मणजी अच्छी तरह जानते थे। अत: लक्ष्मणजी ने उनकी (उर्मिला की) मौन स्वीकृति वन में साथ न जाने की बात मान ली। उर्मिलाजी जानती थी कि वह यदि लक्ष्मणजी के साथ वन जाएगी तो उसके पति को एक नहीं दो स्त्रियों की देखभाल व रक्षा का भार बढ़ जाएगा। अत: उसका वन न जाना ही उचित था। एक सच्चा सेवक कभी भी अपने स्वामी को संकोच में नहीं डालता है यह बात उर्मिलाजी तथा लक्ष्मणजी भलिभाँति जानते थे। इस कारण लक्ष्मणजी ने उर्मिला जी को वन में साथ ले जाना चाहा ही नहीं।
श्रीराम के वनवास काल चौदह वर्ष में लक्ष्मणजी ने कठोर व्रतों का पालन किया। वे दिन रात श्रीराम एवं सीताजी के पास रहते थे। कंद-मूल फल लाकर देना, पूजा की सामग्री लाना, आश्रम की साफ-सफाई, यज्ञ की वेदिका पर चौका लगाना, सीताजी की रुचि के अनुसार उनकी हर प्रकार की सेवा करना और चौबीस घण्टे सजग रहकर वीरासन से बैठे रहना, श्रीराम में मन लगाए, रामनाम जपते हुए पहरा देना उनका चौदह वर्ष तक कार्य रहा। वे अपने कार्य को पूजा मानकर सदा तत्पर रहते थे।
सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय लोटत भाइ।।
उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी।।
कछुक दूरि सजि बान सरासन। जागन बैठि बीरासन।।
श्रीरामचरितमानस अयो. ९०-९०-१
लक्ष्मणजी की निस्वार्थ सेवा का उदाहरण उनका यह है कि रात्रि होने पर बड़े भाई श्रीराम के पैर दबाते थे। इसके बाद वन में जहाँ गुह तथा मन्त्री सुमन्त्रजी उनके साथ थे। रात्रि में श्रीराम को सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमलवाणी से मन्त्री सुमन्त्रजी को सोने के लिए कहकर वहाँ से कुछ दूरी पर धनुष-बाण से सजकर वीरासन से बैठकर जागते एवं रात्रिभर पहरा देते थे। ब्रह्मचर्य व्रत का पता तो इसी बात से लग जाता है कि माता सीताजी की सेवा में सदा प्रस्तुत रहने पर भी उन्होंने उनके चरणों को छोड़कर अन्य किसी अंग का कभी दर्शन तक नहीं किया। यह बात वाल्मीकि रामायण में किष्किन्धाकाण्ड में वर्णित है। जब सुग्रीव ने सीताजी के गहने श्रीराम को दिखाए तथा श्रीराम ने इन आभूषणों की पहिचान हेतु लक्ष्मणजी को दिखाकर पूछा तब-
नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।
नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्।।
वा.रा. अरण्यकाण्ड ६-२२
लक्ष्मणजी ने श्रीराम से कहा- हे स्वामी! मैं तो इन केयूर और कुण्डलों को नहीं जानता-पहचानता हूँ। मैंने तो प्रतिदिन चरण-वन्दन के समय माताजी के नूपुर देखे हैं। अत: उन्हें पहिचान सकता हूँ। आज की नई पीढ़ी को लक्ष्मणजी के चरित्र से शिक्षा लेना चाहिए। श्रीराम का लक्ष्मणजी पर छोटे भाई के साथ ही पुत्रवत प्रेम था, अत: वन में जब खर-दूषण की सेना के साथ युद्ध का समय आया तो उन्होंने सीताजी को लक्ष्मणजी की संरक्षणता में बड़े ही विश्वास के पर्वत की गुफा में भेज दिया था-
कोउ कह जिअत घरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई।।
धूरि पूरि नभ मंडल रहा। राम बोलाइ सन कहा।।
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर। आवा निसिचर कटुक भयंकर।।
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर घनु पानी।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड १८-५-६
खरदूषण की राक्षसों की सेना में कोई राक्षस कहता है कि दोनों भाइयों को जीता ही पकड़ लो, पकड़कर मार डालो और स्त्री को छीन लो। आकाशमण्डल धूल से भर गया। तब श्रीरामजी ने लक्ष्मणजी को बुलाकर उनसे कहा- राक्षसों की भयानक सेना आ गई है। जानकीजी को लेकर तुम पर्वत की कन्दरा (गुफा) में लेकर चले जाओ। सावधान रहना। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के वचन सुनकर लक्ष्मणजी हाथ में धनुष-बाण लिए श्री सीताजी सहित कन्दरा में चले गए। माया-मृग मारने हेतु श्रीराम गए, तब भी सीताजी को लक्ष्मणजी के भरोसे छोड़कर गए थे।
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा।।
प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई।।
सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी।।
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड २७-४-५
श्रीराम ने माया मृग को देखकर कमर में फेंटा बाँधा और हाथ में धनुष लेकर उस पर दिव्य बाण चढ़ाया। फिर प्रभु ने लक्ष्मणजी को समझा कर कहा हे भाई! वन में बहुत से राक्षस फिरते हैं। तुम बुद्धि और बिबेक के द्वारा बल और समय का विचार करके सीताजी की रखवाली करना। प्रभु को देखकर मायामृग भाग चला तथा श्रीरामजी भी धनुष चढ़ाकर उनके पीछे दौड़ पड़े।
आज हम देखते हैं कि परिवार में श्रीराम और लक्ष्मण जैसे भाई कहाँ और कितने हैं? सीताजी जैसी माता स्वरूप भाभी के दर्शन भी दुर्लभ है। समाज में संयुक्त परिवार का नगरीकरण ने समाज में विघटन कर दिया। एकल परिवार का बोलबाला है। अत: इस बदलते परिवेश में परिवार में शांति-सुख भागता जा रहा है। रामायण की कथाएँ हमें शिक्षा देती है कि हम कैसे भी कहीं भी रहें चाहे घर या वन में सदा बड़ों का सम्मान करें तथा उनकी सेवा करें। उर्मिलाजी एवं लक्ष्मणजी का चरित्र हमें यही शिक्षा इस प्रसंग में देता है। लक्ष्मणजी का जन्म श्रीराम एवं परिवार की सेवा के लिए हुआ है। यही बात वाल्मीकि रामायण में वर्णित है-
एके हि लक्षणो नाम भ्रातु प्रियहिय रत:।।
वा.रा. युद्धकाण्ड २८-२३
यह लक्ष्मण भाई (श्रीराम) के प्रिय एवं हितकर कार्यों को करने में लगा रहता है।
श्रीरामकथाओं में श्रीलक्ष्मणजी का एवं उनकी पत्नी उर्मिलाजी का चरित्र अद्वितीय एवं अनुपम है। श्रीरामकथाओं में उर्मिलाजी के चरित्र का वर्णन लगभग नहीं के बराबर है। उर्मिलाजी का संवाद रामायण के किसी भी पात्र से प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता है। इसके उपरान्त भी उर्मिलाजी का मौन रहना ही उनके चरित्र का पूरा-पूरा वर्णन कर देता है। अनेक कवियों ने उर्मिलाजी के दु:ख को समझा तथा उसका अपूर्व वर्णन अपनी कविताओं के माध्मय से किया है। उर्मिलाजी का चरित्र त्याग की कठोर चौदह वर्ष की तपस्या है। वे एक भारतीय सच्ची पतिव्रता नारी है। लक्ष्मणजी के वन में जाने का सुनकर उन्होंने उनके साथ वन में जाने का हठ नहीं किया। जबकि सीताजी ने श्रीराम के समझाने के बाद भी वन में जाने हेतु हठ किया-
जौं हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुखु पाउब परिनामा।।
काननु कठिन भयकरु भारी। घोर धामु हिम बारि बयारी।।
श्रीरामचरितमानस अयो. ६२-२
हे वामा (सीता)! यदि प्रेमवश हठ करोगी तो तुम परिणाम में दु:ख पाओगी। वन का जीवन बड़ा कठिन (दु:खदायी) और भयानक है। वहाँ की धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक है। श्रीराम द्वारा इतना सब कुछ कहने के बाद भी सीताजी ने हठ नहीं छोड़ा तथा वन में श्रीराम के साथ गई। सीताजी के हठ को श्रीराम को मानना पड़ा क्योंकि श्रीराम जानते थे कि सीताजी के वन में साथ जाने के बाद ही राक्षसों का तथा रावण का वध सम्भव होगा। ससुर दशरथजी ने भी मन्त्री सुमन्त्रजी के द्वारा सीताजी को वन में न जाने का सन्देश भेजा था-
पितृगृह कबहुँ कबहुँ ससुरारी। रहेहुँ जहाँ रुचि होई तुम्हारी।।
एहि बिधि करेहु उपाय कदंवा। फिरइ त होइ प्रान अवलंबा।।
श्रीरामचरितमानस अयो. ८२-३
कभी पिता (जनकजी) के घर कभी ससुराल, जहाँ तुम्हारी इच्छा हो वहाँ रहना। इस प्रकार बहुत से उपाय करना। यदि सीताजी लौट आई तो मेरे प्राणों को सहारा हो जाएगा। श्रीराम ने भी लोक शिक्षा, पतिव्रता के परम आदर्श की स्थापना और पत्नी के प्रति कर्तव्य के आदर्श समाज में शिक्षा के लिए सुमन्त्रजी ने राजा दशरथजी का सन्देश सुनाया किन्तु विधि का विधान कुछ और ही था। वास्तव में श्रीराम वन में सीताजी को ले जाना ही चाहते थे क्योंकि उनके वन में गए बिना रावण अपराधी नहीं बनता और ऐसे हुए बिना उसकी मृत्यु असम्भव थी क्योंकि श्रीराम का अवतार इस हेतु ही हुआ था। श्रीसीताजी साक्षात् जगन्नायिका और श्रीराम सच्चिदानन्दन जगदीश्वर थे। माता सीताजी भी भला उनसे अलग कैसे रह सकती थी?
लक्ष्मणजी के समक्ष उर्मिलाजी ने वन में उनके साथ जाने के हठ का कहीं वर्णन प्राप्त नहीं है। उर्मिलाजी सीताजी की छोटी बहिन थी, परम पतिव्रता थी। बड़ी बहिन सीताजी जैसे ही अपने स्वामी (पति) श्रीराम में अनुरक्ता और सेवा व्रतधारिणी थी वैसे ही उर्मिला भी सीता के पद चिन्हों पर चलने वाली कर्तव्यपरायणा एवं पतिव्रता स्त्री थी। उर्मिलाजी भी सीताजी की भाँति ही लक्ष्मणजी के साथ जाने के लिए प्रेमाग्रह कर सकती थी किन्तु उनके अयोध्या में रहने से श्रीरामजी के क्रियाकलापों में सुविधा थी, जिसमें सेवक बनकर रहना उनके पति का एक मात्र लक्ष्य और धर्म था। इसमें उर्मिलाजी पूर्ण सहमत तथा सहायिका थी। ऐसा कई श्रीरामकथाओं में वर्णन प्राप्त होता है कि इन्द्रजित मेघनाद को वरदान प्राप्त था कि जो महापुरुष चौदह वर्ष लगातार कुछ भी नहीं खायेगा, इतने ही वर्ष निद्रा का त्याग और अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करेगा। उसी के हाथों से मेघनाद का वध होगा। बंगला कृतिवास रामायण में लक्ष्मणजी के लिए चौदह वर्ष नींद-नारी-अनाहारी होने से मेघनाद के वध का यह रहस्य बड़े ही विस्तारपूर्वक उत्तरकाण्ड में दिया गया है। इन तीनों बातों का रहस्य भी श्रीराम के राज्याभिषेक उपरान्त उन्हें भी ज्ञात हुआ है।
जिस प्रकार रावण-वध में कारण बनने के लिए सीताजी का श्रीराम की लीला में सहयोगी बनकर वन में जाना नितान्त आवश्यक था, वैसे ही लक्ष्मणजी का भी श्रीराम जी की लीला में सम्मिलित होने के लिए ये तीन महाव्रत चौदह वर्ष नींद नहीं लेना, अनाहारी होना एवं अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने से ही मेघनाद वध के लिए वन में जाना आवश्यक था। वैसे ही उर्मिलाजी को भी श्रीराम की लीला को सुचारू रूप से सम्पन्न कराने के लिए ही जो व्रत था। वह उर्मिलाजी को अयोध्या (घर) में रहना आवश्यक था। यदि उर्मिलाजी लक्ष्मणजी के साथ वन को जाती तो इस महाव्रत का पालन कठिन था तथा मेघनाद का वध अत्यन्त ही कठिन था।
कुछ लोगों का मत है कि लक्ष्मणजी बड़े निष्ठुर थे। श्रीराम तो सीताजी को वन में साथ ले गए, किन्तु लक्ष्मणजी ने वन गमन के पूर्व अपनी पत्नी उर्मिला से वार्तालाप भी नहीं किया। गम्भीरतापूर्वक इस प्रसंग पर विचार किया जाए तो लक्ष्मणजी एवं उनकी पत्नी उर्मिलाजी का एक ही धर्म श्रीराम कीसेवा करना था। लक्ष्मणजी उर्मिलाजी के स्वभाव को अच्छी तरह जानते थे कि वह पतिव्रता है, उसे पति के प्रसन्न रहने और श्रीराम की सेवा में रत रहना चाहते हैं। अत: उन्होंने लक्ष्मणजी के साथ वन में जने हेतु कभी भी दुराग्रह नहीं किया। माता सुमित्रा और उर्मिला धर्मपरायणा वीरांगनाएँ हैं जिन्होंने प्रसन्नतापूर्वक लक्ष्मणजी के वनगमन के मार्ग में बाधाएँ खड़ी नहीं की। श्रीरामकथाओं में अवश्य ही उर्मिला लक्ष्मणजी के वनगमन पर कुछ नहीं बोली किन्तु वहाँ न तो बोलने का अवकाश था और न ही धर्म नित्य हार्दिक सम्मति होने के कारण बोलने की आवश्यकता ही थी न मर्यादा ही। ऐसी आज्ञा देती थी। संसार में देखा जाए तो सेवा धर्म में तत्पर नि:स्वार्थ सेवक को तत्काल करने योग्य प्रबल मनचाहा सेवाकार्य सामने आ पड़ने पर सलाह-परामर्श के लिए न तो अवकाश होता है और न ही उसकी सहधर्मिणी पत्नी भी इसमें दु:ख मानती है, क्योंकि वह अपने पति की मनोदशा से भलिभाँति परिचित होती है। अत: वह पति के प्रत्येक कार्य को स्वीकार कर अनुमोदन कर देती है।
लक्ष्मणजी के श्रीराम की सेवाभाव के कार्य पर विचार करें तो देखते हैं कि सेवक सदा परतन्त्र होता है। स्वामी श्रीराम तो स्वतन्त्र थे वे अपने साथ सीताजी को ले गए, परन्तु परतन्त्र सेवा परायण लक्ष्मणजी यदि उर्मिला को साथ ले जाना चाहते तो यह अनुचित सिद्ध होता क्योंकि लक्ष्मणजी को श्रीरामजी की सम्मति उर्मिला को साथ ले जाने की लेना होती। श्रीरामजी उर्मिला को वन में सीताजी के साथ ले जाने पर आपत्ति कर देते। यह बात सर्वमान्य है कि जो कार्य स्वामी की रुचि के प्रतिकूल हो उसको उसे एक सच्चे सेवक को कभी भी नहीं करना चाहिए। उर्मिला परम पवित्र पतिव्रता थी वह बात लक्ष्मणजी अच्छी तरह जानते थे। अत: लक्ष्मणजी ने उनकी (उर्मिला की) मौन स्वीकृति वन में साथ न जाने की बात मान ली। उर्मिलाजी जानती थी कि वह यदि लक्ष्मणजी के साथ वन जाएगी तो उसके पति को एक नहीं दो स्त्रियों की देखभाल व रक्षा का भार बढ़ जाएगा। अत: उसका वन न जाना ही उचित था। एक सच्चा सेवक कभी भी अपने स्वामी को संकोच में नहीं डालता है यह बात उर्मिलाजी तथा लक्ष्मणजी भलिभाँति जानते थे। इस कारण लक्ष्मणजी ने उर्मिला जी को वन में साथ ले जाना चाहा ही नहीं।
श्रीराम के वनवास काल चौदह वर्ष में लक्ष्मणजी ने कठोर व्रतों का पालन किया। वे दिन रात श्रीराम एवं सीताजी के पास रहते थे। कंद-मूल फल लाकर देना, पूजा की सामग्री लाना, आश्रम की साफ-सफाई, यज्ञ की वेदिका पर चौका लगाना, सीताजी की रुचि के अनुसार उनकी हर प्रकार की सेवा करना और चौबीस घण्टे सजग रहकर वीरासन से बैठे रहना, श्रीराम में मन लगाए, रामनाम जपते हुए पहरा देना उनका चौदह वर्ष तक कार्य रहा। वे अपने कार्य को पूजा मानकर सदा तत्पर रहते थे।
सयन कीन्ह रघुबंसमनि पाय लोटत भाइ।।
उठे लखनु प्रभु सोवत जानी। कहि सचिवहि सोवन मृदु बानी।।
कछुक दूरि सजि बान सरासन। जागन बैठि बीरासन।।
श्रीरामचरितमानस अयो. ९०-९०-१
लक्ष्मणजी की निस्वार्थ सेवा का उदाहरण उनका यह है कि रात्रि होने पर बड़े भाई श्रीराम के पैर दबाते थे। इसके बाद वन में जहाँ गुह तथा मन्त्री सुमन्त्रजी उनके साथ थे। रात्रि में श्रीराम को सोते जानकर लक्ष्मणजी उठे और कोमलवाणी से मन्त्री सुमन्त्रजी को सोने के लिए कहकर वहाँ से कुछ दूरी पर धनुष-बाण से सजकर वीरासन से बैठकर जागते एवं रात्रिभर पहरा देते थे। ब्रह्मचर्य व्रत का पता तो इसी बात से लग जाता है कि माता सीताजी की सेवा में सदा प्रस्तुत रहने पर भी उन्होंने उनके चरणों को छोड़कर अन्य किसी अंग का कभी दर्शन तक नहीं किया। यह बात वाल्मीकि रामायण में किष्किन्धाकाण्ड में वर्णित है। जब सुग्रीव ने सीताजी के गहने श्रीराम को दिखाए तथा श्रीराम ने इन आभूषणों की पहिचान हेतु लक्ष्मणजी को दिखाकर पूछा तब-
नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।
नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्।।
वा.रा. अरण्यकाण्ड ६-२२
लक्ष्मणजी ने श्रीराम से कहा- हे स्वामी! मैं तो इन केयूर और कुण्डलों को नहीं जानता-पहचानता हूँ। मैंने तो प्रतिदिन चरण-वन्दन के समय माताजी के नूपुर देखे हैं। अत: उन्हें पहिचान सकता हूँ। आज की नई पीढ़ी को लक्ष्मणजी के चरित्र से शिक्षा लेना चाहिए। श्रीराम का लक्ष्मणजी पर छोटे भाई के साथ ही पुत्रवत प्रेम था, अत: वन में जब खर-दूषण की सेना के साथ युद्ध का समय आया तो उन्होंने सीताजी को लक्ष्मणजी की संरक्षणता में बड़े ही विश्वास के पर्वत की गुफा में भेज दिया था-
कोउ कह जिअत घरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई।।
धूरि पूरि नभ मंडल रहा। राम बोलाइ सन कहा।।
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर। आवा निसिचर कटुक भयंकर।।
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर घनु पानी।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड १८-५-६
खरदूषण की राक्षसों की सेना में कोई राक्षस कहता है कि दोनों भाइयों को जीता ही पकड़ लो, पकड़कर मार डालो और स्त्री को छीन लो। आकाशमण्डल धूल से भर गया। तब श्रीरामजी ने लक्ष्मणजी को बुलाकर उनसे कहा- राक्षसों की भयानक सेना आ गई है। जानकीजी को लेकर तुम पर्वत की कन्दरा (गुफा) में लेकर चले जाओ। सावधान रहना। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के वचन सुनकर लक्ष्मणजी हाथ में धनुष-बाण लिए श्री सीताजी सहित कन्दरा में चले गए। माया-मृग मारने हेतु श्रीराम गए, तब भी सीताजी को लक्ष्मणजी के भरोसे छोड़कर गए थे।
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा।।
प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई।।
सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी।।
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी।।
श्रीरामचरितमानस अरण्यकाण्ड २७-४-५
श्रीराम ने माया मृग को देखकर कमर में फेंटा बाँधा और हाथ में धनुष लेकर उस पर दिव्य बाण चढ़ाया। फिर प्रभु ने लक्ष्मणजी को समझा कर कहा हे भाई! वन में बहुत से राक्षस फिरते हैं। तुम बुद्धि और बिबेक के द्वारा बल और समय का विचार करके सीताजी की रखवाली करना। प्रभु को देखकर मायामृग भाग चला तथा श्रीरामजी भी धनुष चढ़ाकर उनके पीछे दौड़ पड़े।
आज हम देखते हैं कि परिवार में श्रीराम और लक्ष्मण जैसे भाई कहाँ और कितने हैं? सीताजी जैसी माता स्वरूप भाभी के दर्शन भी दुर्लभ है। समाज में संयुक्त परिवार का नगरीकरण ने समाज में विघटन कर दिया। एकल परिवार का बोलबाला है। अत: इस बदलते परिवेश में परिवार में शांति-सुख भागता जा रहा है। रामायण की कथाएँ हमें शिक्षा देती है कि हम कैसे भी कहीं भी रहें चाहे घर या वन में सदा बड़ों का सम्मान करें तथा उनकी सेवा करें। उर्मिलाजी एवं लक्ष्मणजी का चरित्र हमें यही शिक्षा इस प्रसंग में देता है। लक्ष्मणजी का जन्म श्रीराम एवं परिवार की सेवा के लिए हुआ है। यही बात वाल्मीकि रामायण में वर्णित है-
एके हि लक्षणो नाम भ्रातु प्रियहिय रत:।।
वा.रा. युद्धकाण्ड २८-२३
यह लक्ष्मण भाई (श्रीराम) के प्रिय एवं हितकर कार्यों को करने में लगा रहता है।