श्री विद्या साधना रहस्य

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श्री विद्या साधना रहस्य

श्री विद्या साधना रहस्य

आचार्य ✍ सत्यम व्यास वाराणसी, उत्तरप्रदेश÷

श्रीविद्या भगवती राजराजेश्वरी ललिता महात्रिपुरसुन्दरी शिवशक्त्यैक्यरूपिणी पराम्बा का स्मरण, मनन, कीर्तन एवं साधना का रहस्योद्घाटन श्रीविद्या तन्त्र-साधना का परम पाथेय है जो गुरु कृपा से प्राप्त होता है। 
श्रीविद्या महाविद्या तथा ब्रह्ममयी है। ‘‘श्री’’ स्वयं ही महात्रिपुरसुन्दरी है। सम्प्रदाय एवं आम्नायनुसार इस विद्या के अनेक भेद हैं। दश महाविद्या में प्रथम तीन काली, तारा एवं षोडशी सर्वप्रमुख हैं और तीनो से ही नौ विद्यायें एवं एक पूरक विद्या मिलाकर दश महाविद्यायें होती हैं। मूल एक ही है जिससे तीन हुई और सर्वमूलभूत एक ही विद्या श्रीविद्या है। जहाँ भी तीनों रूपों का समन्वित रूप हो वह सभी परमार्थतया त्रिपुरा नाम से अन्वित हो जाता है। करुणामयी राजराजेश्वरी श्रीललिता महात्रिपुरसुन्दरी की आराधना-उपासना सभी के लिये कल्याणमयी है। आत्मस्वरूपिणी श्रीविद्या जब लीला से शरीर धारण करती हैं तब वेदशास्त्र उनका निरूपण करने लगते हैं। 

एक बार पराम्बा पार्वती ने भगवान शिव
से कहा कि आपके द्वारा प्रकाशित तंत्रशास्त्र की साधना से मनुष्य समस्त
आधि-व्याधि, शोक-संताप, दीनता-हीनता से मुक्त हो जायेगा। किंतु सांसारिक सुख, ऐश्वर्य, उन्नति, समृद्धि के साथ जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति कैसे प्राप्तहो इसका कोई उपाय बताईये।

भगवती पार्वती के अनुरोध पर कल्याणकारी शिव ने श्रीविद्या साधना प्रणाली को प्रकट किया।


श्रीविद्या साक्षात्ब्रह्मविद्या है।
श्रीविद्या साधनासमस्त ब्रह्मांड प्रकारान्तर से शक्ति का ही रूपान्तरण है। सारे जीव-निर्जीव, दृश्य-अदृश्य, चल-अचल पदार्थो और उनके समस्तक्रिया कलापों के मूल में शक्ति ही है।शक्ति ही उत्पत्ति, संचालन और संहार का मूलाधार है।

जन्म से लेकर मरण तक सभी छोटे-बड़े कार्योके मूल में शक्ति ही होती है। शक्ति की आवश्यक मात्रा और उचित उपयोग ही मानव जीवन में सफलता का निर्धारण
करती है, इसलिए शक्ति का अर्जन और
उसकी वृद्धि ही मानव की मूल कामना
होती है। धन, सम्पत्ति, समृद्धि,राजसत्ता, बुद्धि बल, शारीरिक बल,अच्छा स्वास्थ्य, बौद्धिक क्षमता, नैतृत्वक्षमता आदि ये सब शक्ति के ही विभिन्नरूप है। इन में असन्तुलन होने पर अथवा किसी एक की अतिशय वृद्धि मनुष्य के विनाश का कारण बनती है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य है कि शक्ति की प्राप्ति पूर्णता का प्रतीक नहीं है, वरन् शक्ति का सन्तुलित मात्रा में होना ही पूर्णता है। शक्ति का सन्तुलन विकास का मार्गप्रशस्त करता है। वहीं इसका असंतुलन विनाश का कारण बनता है। समस्त प्रकृति पूर्णता और सन्तुलन के सिद्धांत पर कार्य करती है।

जब मनुष्य में शक्ति संतुलन होता है तो उसके विचार पूर्णतः सकारात्मक होते है। जिससे प्रेरित कर्म शुभहोते है और शुभ कर्म ही मानव के लोक-लोकान्तरों को निर्धारित करते है तथा मनुष्य सारे भौतिक सुखों को भोगता हुआ मोक्ष प्राप्त करता है।

श्रीविद्या-साधना ही एक मात्र ऐसी साधना है जो मनुष्य के जीवन में संतुलन स्थापित करती है। अन्य सारी साधनाएं असंतुलित या एक तरफा शक्ति प्रदान करती है। इसलिए कई तरह की साधनाओं
को करने के बाद भी हमें साधकों में न्यूनता के दर्शन होते है। वे कई तरह के अभावों और संघर्ष में दुःखी जीवन जीते हुए दिखाई देते है और इसके परिणाम स्वरूप जन सामान्य के मन में साधनाओं के प्रति अविश्वास और भय का जन्म होता है और वह साधनाओं से दूर भागता है। भय और अविश्वास के अतिरिक्त योग्य गुरू का अभाव, विभिन्न यम-नियम-संयम, साधना की सिद्धि में लगने वाला लम्बा समय और कठिन परिश्रम भी जन सामान्य को साधना क्षेत्र से दूर करता है। किंतु श्रीविद्या-साधना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह अत्यंत सरल, सहज और शीघ्र फलदायी है।

श्रीविद्या-साधक के जीवन में
भी सुख-दुःख का चक्र तो चलता है, लेकिन
अंतर यह है कि श्रीविद्या-साधक की
आत्मा व मस्तिष्क इतने शक्तिशाली हो
जाते है कि वह ऐसे कर्म ही नहीं करता कि
उसे दुःख उठाना पड़े किंतु फिर भी यदि
पूर्व जन्म के संस्कारों, कर्मो के कारण जीवन में दुःख संघर्ष है तो वह उन सभी विपरीत-परिस्थितियों से आसानी से मुक्त हो जाता है। वह अपने दुःखों को नष्ट करने में स्वंय सक्षम होता
रिपोटर चंद्रकांत सी पूजारी

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