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श्रीरामनाम अनमोल है

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श्रीरामनाम अनमोल है
एक महात्मा किसी नगर के बाहर रहा करते थे। उनका एक अनन्य भक्त श्रद्धापूर्वक प्रतिदिन उनके पास आता था और उनकी सेवा सुश्रूषा बड़े ही प्रेमपूर्वक करता था। उसकी श्रद्धा और सेवा से महात्माजी अत्यधिक प्रसन्न हो गए और उससे बोले- तू ईश्वर का भक्त है, तू साधु-संतों का सत्संग करता है, शास्त्र के वचनों तथा उसके मार्ग पर श्रद्धापूर्वक विश्वास करता है। अत: तेरी सरलता और सेवा प्रशंसनीय है। तू दूसरों जैसा व्यर्थ के कुतर्क नहीं करता है, साथ ही साथ तुझमें दूसरों के अहित करने की भावना भी नहीं रहती है। ये सब इस संसार में चरित्रवान व्यक्ति के लिए आदर्श गुण है। यह सब गुण ईश्वर की कृपा से ही उसके भक्त में सहज आ जाते हैं। आज मैं तुझको इन सद्गुणों से सम्पन्न तथा योग्य मानकर प्रसन्नता के साथ एक अत्यन्त ही गोपनीय महामंत्र दे रहा हूँ। इस महामंत्र का वास्तविक महत्व कोई जन साधारण नहीं जानता है। तुम इसे किसी को बतलाना-देना मत। इतना कहकर उन महात्माजी ने 'रामÓ उस भक्त के कान में कह दिया। बस फिर क्या था वह भक्त रामनाम के जप में संलग्र हो गया। वह दिन-रात रामनाम का जप करने लग गया। वह भक्त प्रतिदिन गंगास्नान करने जाता था। एक दिन वह गंगा स्नान कर लौट रहा था कि उसका ध्यान उन लोगों की ओर गया, जो गंगा स्नान करके लौटते समय जोर-जोर से 'राम-रामÓ बोल रहे थे। उनके सबके द्वारा 'रामÓ शब्द सुनते ही उस भक्त को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसके मन में विचार आया कि महात्माजी तो यह कहते थे कि यह परम गुप्त ही नहीं महामंत्र है किन्तु इसे तो सब लोग जोर-जोर से सबके सामने बोल रहे हैं। अब इस महामंत्र की गोपनीयता भंग हो गई।
भक्त घर भी नहीं गया तथा सीधा महात्माजी की कुटिया पर जा पहुँचा तथा अपने मन का सम्पूर्ण सन्देह महात्माजी को कह सुनाया। महात्माजी उस भक्त की भावना और मनोदशा को जान गए। महात्माजी ने कहा- ठीक है, मैं तुम्हारे सन्देह को मिटा दूँगा, तुम व्यर्थ में क्यों चिन्ता करते हो। सबसे पहले मेरा एक अत्यन्त आवश्यक कार्य कर दो। इतना कहकर महात्माजी ने अपनी झोली से एक चमकता हुआ काँच-सा निकालकर उस भक्त को दिया तथा उससे कहा कि वत्स! इसको तुम बाजार में लेकर जाओ और इसका मूल्य अंकवा (मूल्यांकन) कर लाओ। ध्यान रहे कि इसको किसी भी मूल्य पर बेच मत आना। बस तुम्हें इसका सही-सही मूल्य पता लगाना है कि आखिर इसका मूल्य क्या है?
उस भक्त ने अपने सन्देह को महात्माजी के पास छोड़ दिया तथा उनकी आज्ञानुसार उस काँच का मूल्य अँकवाने के लिए वह तुरन्त बाजार की ओर चल पड़ा। बाजार में प्रवेश करते ही उसे एक साग-भाजी बेचने वाली मिली। भक्त ने उक्त काँच उसे दिखाकर उसका मूल्य पूछा। साग-भाजी बेचने वाली ने बड़े सोच विचार कर कहा कि यह काँच बड़ा ही चमकदार है अत: बच्चों के खेलने के लिए बहुत बढ़िया होगा। यह सोचकर साग-भाजी बेचने वाली महिला ने उस भक्त से कहा- यह काँच मुझे दे दो और बदले में दो सेर आलू ले जाओ। भक्त ने वह काँच उससे वापस ले लिया और वहाँ से चल दिया। आगे जाने पर उसे एक सुनार की दुकान दिखाई दी भक्त ने सुनार को काँच दिखाकर मूल्य पूछा। सुनार ने काँच को देखकर सोचा कि यह देखने में नकली हीरा जैसा लगता है, अत: इसका मूल्य सौ रुपया देकर लेने में कोई हानि नहीं होगी। सुनार ने भक्त को उस काँच का मूल्य सौ रुपया बता दिया। यह सुनकर भक्त सुनार से काँच लेकर वहाँ से चल दिया। भक्त आगे चलकर एक महाजन की दुकान पर गया और काँच को दिखाया। महाजन ने देखा और सोचा- यह तो नकली हीरा है किन्तु इतना सुन्दर है कि इसे कौन नकली कहेगा। महाजन ने सोचा कि हमारे घर की बहू-बेटियों को पहने देखकर तो सभी इसको असली कहेंगे। इतना सोच विचार करने के बाद महाजन ने एक हजार रुपए मूल्य देने को कहा इतना सब कुछ सुनकर वह पुन: वहाँ से चल पड़ा। भक्त सोच में पड़ गया तथा उत्साह से भर गया। भक्त काँच के मूल्य की जाँच जहाँ भी करता वहाँ उसका मूल्य बढ़ते ही जा रहा था। वह आश्चर्यचकित हो गया।
भक्त एक जौहरी की दुकान पर गया। जौहरी ने काँच को देखकर मन ही मन में सोचा कि यह लगता तो हीरा ही है किन्तु इतना बड़ा उच्च कोटि का हीरा उसने अपने जीवन में कभी नहीं देखा। सम्भवत: हीरा न भी हो किन्तु यदि कहीं हीरा हुआ तो इसका मूल्य बहुत अधिक होगा। अतएव एक लाख रुपए तक में इसे खरीद लेना ठीक होगा। अत: जौहरी ने काँच का मूल्य एक लाख रुपए भक्त को बताकर देने को कहा। भक्त ने जौहरी से काँच वापस ले लिया। भक्त बड़े ही सोच विचार में पड़ गया कि जहाँ भी वह जाता है वहाँ इसका मूल्य बढ़ ही रहा है। तदनन्तर वह भक्त नगर के ख्याति प्राप्त सबसे बड़े जौहरी के वहाँ काँच को ले गया। उस जौहरी ने अत्यन्त सूक्ष्म तरीके से जाँच कर उसे परख कर कहा भैय्या! इतना बढ़िया हीरा तुम्हें कहाँ से मिल गया? अरे यह तो अमूल्य है। इतना भव्य और बड़ा हीरा मैंने आज तक कभी नहीं देखा और परखा। उस जौहरी ने कहा कि यह हीरा इतना मूल्यवान है कि जौहरियों तथा बड़े-बड़े राजाओं के खजाने के सारे हीरों का जितना दाम हो सकता है, वह सब मिलाकर भी इसके मूल्य के बराबर नहीं हो सकता। वास्तविक रूप में इसका मूल्य आँकना किसी की बुद्धि से बाहर की बात है। यह उस काँच तथा अब हीरा ज्ञात हो गया की चरम सीमा है। यह सोचकर भक्त महात्माजी की कुटिया की ओर उससे हीरा वापस लेकर दौड़ पड़ा।
महात्माजी ने भक्त से काँच का मूल्य पूछा। भक्त ने कहा- गुरुदेव! यह तो अमूल्य हीरा है। साग-भाजी वाली ने दो सेर आलू इसका मूल्य बताया। सुनार ने इसके बदले में सौ रुपए देने चाहे। महाजन ने इसका मूल्य एक हजार रुपए आँके। जौहरी ने एक लाख रुपए कहा तथा नगर के ख्यातिप्राप्त सबसे बड़े जौहरी ने यह कहा कि यह तो अमूल्य है। देश के सारे हीरे मिलकर भी मूल्य में इस हीरे की बराबरी नहीं कर सकते। भक्त ने कहा- गुरुदेव! मैं तो आपकी आज्ञानुसार आपका काम कर आया हूँ। अब तो आप मेरा सन्देह दूर कीजिए। महात्माजी ने हँसते हुए कहा- वह सन्देह तो दूर कर चुका हूँ। यह बात भक्त की समझ में नहीं आई। उसने पूछा गुरुदेव यह कैसे? महात्माजी ने बड़ी मधुर एवं स्नेहपूर्ण वाणी से कहा- अभी तुमको प्रत्यक्ष उदाहरण दिया जा चुका है। तुम हीरा लेकर नगर के बाजार में गए थे। किसी ने दो सेर आलू, किसी ने सौ रुपए, किसी ने एक हजार रुपए, किसी ने एक लाख रुपए मूल्यांकन किया। किन्तु इन सबका मूल्यांकन अलग-अलग था। किसी ने तो अनमोल भी कहा है।
इसी प्रकार रामनाम अमूल्य है- अनमोल है। इसका सच्चा मूल्य आँका नहीं जा सकता और तो और स्वयं राम भी इसका मूल्य नहीं बता सकते-
कहाँ कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई।।
श्रीरामचरितमानस बाल. २६-४
श्रीरामनाम अमूल्य है इसको वही जान सकता है जो कि उस जौहरी से तीव्र बुद्धि एवं जानकार हो। श्रीराम को वही व्यक्ति जान सकता है जिस पर श्रीराम की कृपा होती है।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई।।
श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड १६ (क)३
काक भुशुण्डीजी पक्षिराज गरुड़जी से कहते हैं कि हे पक्षिराज गरुड़! सुनिए श्रीरामजी की कृपा बिना श्रीरामजी की प्रभुता नहीं जानी जा सकती है।
शिवजी ने भी पार्वतीजी को श्रीरामजी की भक्ति एवं कृपा के बारे में कहा है-
यह सुभ चरित जान पै सोई। राम कृपा कै जापर होई।।
श्रीरामचरितमानस बाल. १९६-३
हे पार्वती यह शुभ चरित वही जान सकता है, जिस पर श्रीरामजी की कृपा हो। इस प्रकार देखा जाता है कि श्रीरामजी की कृपा हो जाने पर इस संसार में दूसरे भी कृपा करते हैं। श्रीरामनाम लेने वाले बहुत लोग हैं पर उसका मूल्य (कीमत) जानने वाला बिरले ही हैं। भक्त का सारा सन्देह जाता रहा। भक्त ने अत्यधिक श्रद्धा से गुरुदेव (महात्माजी) के चरणों में प्रणाम किया तथा वह अधिक निष्ठा-श्रद्धा से रामनाम लेने का दृढ़ संकल्प लेकर घर लौट गया।
नहि रामसम: कश्चिद् विद्यते त्रिदशेष्वपि।
वा.रा. सुन्दरकाण्ड ११-३
देवताओं में भी कोई ऐसा नहीं जो श्रीराम की समानता कर सके।

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