बालि के जन्म तथा मृत्यु पूर्व माँगा गया वर कथा प्रसंग
Mar 10, 2021, 19:44 IST
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बालि के जन्म तथा मृत्यु पूर्व माँगा गया वर कथा प्रसंग
बभूवर्क्षरजो नाम वानेन्द्र: प्रतापवान्।
ममार्य: पार्थिव: पक्षिन् धार्मिकौ तस्य चात्माजौ।।
सुग्रीवश्चैव वाली च पुत्रौ धनबलावुभौ।
लोके विश्रुतकर्माभूद् राजा वाली पिता मम्।।
वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड ५७/५-६
अंगद ने सम्पाती को अपना परिचय देते हुए कहा कि- पक्षिराज! पहले एक प्रतापी वानरराज हो गए हैं, जिनका नाम ऋक्षरजा था। राजा ऋक्षरजा मेरे पितामह लगते थे। उनके दो धर्मात्मा पुत्र हुए- सुग्रीव और वाली (बालि)। दोनों ही बड़े बलवान् हुए। उनमें से राजा वाली मेरे पिता थे। संसार में अपने पराक्रम के कारण उनकी बड़ी ख्याति थी। यहाँ अंगद के द्वारा अपने पितामह एवं पिता का परिचय बहुत ही संक्षिप्त में दिया है। अत: बालि कौन थे, उनको श्रीराम ने क्यों मारा, बालि-सुग्रीव में क्यों शत्रुता थी आदि जानना आवश्यक है, यहाँ इसका विवरण इस प्रकार है-
एक बार मेरुपर्वत पर तपस्यारत ब्रह्माजी के आनन्दाश्रु पृथ्वी पर गिरे, जिससे एक वानर उत्पन्न हुआ। उसका नाम ऋक्षरजा (ऋक्षराज) था। एक समय वन में विचरण करते हुए यह ऋक्षराज एक बावड़ी में अपना प्रतिबिम्ब देखकर कूद पड़े। बाबड़ी में गिरते ही उसका स्वरूप स्त्री में परिवर्तित हो गया। इसके आगे की कथा का वर्णन श्री एकनाथजी कृत मराठी भावार्थ रामायण में है कि ऋक्षराज के स्त्री रूप होने का कारण पार्वतीजी द्वारा शाप है। जिसके अनुसार एक दिन कैलाश के एक सरोवर में शिव पार्वती के जल-क्रीड़ा के समय अचानक वहाँ कुछ मुनि आ पहुँचे तो शिव पार्वती को अन्तर्धान होना पड़ा। तब पार्वती ने यह शाप दे दिया था कि अब से इस सरोवर में जो भी स्नान करेगा वह नारी के रूप में परिवर्तित होकर ही बाहर निकलेगा। ऋक्षराज यह शाप वाली बात से अनभिज्ञ थे। अतएव इसमें कूद जाने के बाद वह स्त्री रूप में परिवर्तित हो गए थे।
एक ऐसी अन्य कथा प्रसिद्ध रामकथा के मर्मज्ञ क़ामिलबुल्के की पुस्तक रामकथा के अनुच्छेद ५१३ में भी वर्णन प्राप्त होता है। वाल्मीकि रामायण आदि में बालि-सुग्रीव की जन्मकथा का कोई वर्णन नहीं है किन्तु प्रचलित वाल्मीकि के दक्षिणापत्य बालकाण्ड १७-१० में बालि तथा सुग्रीव को क्रमश: इन्द्र तथा सूर्य का पुत्र माना गया है। उनकी जन्मकथा दक्षिणापत्य पाठ के एक प्रक्षिप्त सर्ग में प्राप्त होती है जिसके अनुसार महर्षि अगस्त्य नारदजी से सुनी हुई कथा श्रीराम को सुनाते हैं। अन्य पाठों में यह कथा युद्धकाण्ड सर्ग ४ में शुक उसे रावण को सुनाते हैं।
दक्षिणापत्य पाठ की कथा प्रसंग यह है- मेरु पर्वत के शिखर पर योगाभ्यास करते हुए ब्रह्माजी की आँखों से आँसू निकले। ब्रह्माजी के हाथ से आँसू पोंछे जाने पर ये आँसू भूमि पर गिरे और उनमें एक ऋक्षरजा नामक वानर उत्पन्न हुआ जो पर्वत पर रहने लगा और प्रतिदिन संध्या के समय ब्रह्माजी के पास आकर उनको फल-फूल चढ़ाया करता था। किसी एक दिन ऋक्षरजा ने मेरू पर्वत के सरोवर में से पानी पीना चाहा और उसने झुककर जल ने अपनी परछाई (प्रतिबिम्ब में) देखा। वह उसे अपना शत्रु समझकर सरोवर में कूद पड़ा और एक अत्यन्त लावण्यमय नारी (स्त्री) के रूप में निकला। इन्द्र तथा सूर्य संयोगवश उस समय वहाँ आ पहुँचे और उसे देखकर दोनों उस पर आसक्त हो गए। इन्द्र का तेज उस स्त्री के बालों पर गिरा और उससे बालि उत्पन्न हुआ। सूर्य का तेज उस स्त्री की ग्रीवा पर पड़ा और उससे सुग्रीव उत्पन्न हुआ। इन्द्र ने अपने पुत्र बालि को अक्षय सुवर्णमाला दे दी तथा सूर्य ने अपने पुत्र सुग्रीव की सेवा में हनुमान् को नियुक्त किया। अगले दिन सूर्योदय होते ही ऋक्षरजा ने पुन: अपना वानररूप प्राप्त किया और अपने पुत्रों के साथ ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने ऋक्षरजा के साथ एक देवदूत को विश्वकर्मा-निर्मित किष्किन्धा भेज दिया। वहाँ पहुँचकर देवदूत ने ऋक्षराज को वानर राजा के पद पर अभिषिक्त किया।
बालि की स्त्री का नाम तारा था जो कि सुषेण नामक महाबलि वानर की पुत्री थी। तारा पाँच कन्याओं में से एक है यथा-
अहल्या द्रौपदी तारा कुन्ती मन्दोदरी तथा।
पंचकन्या: स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम्।।
ब्रह्मा ३/७/२१९
किष्किन्धा नरेश वानरराज बालि अमित पराक्रमी थे। वे नित्य संध्या पूजन, देवताओं की आराधना भी करते थे। बालि गौओं और ब्राह्मणों के अनन्य भक्त थे। वे सदा अहंकार और अधर्म से दूर रहते थे। बालि इतने महाबलि और पराक्रमी थे कि एक बार युद्ध के लिए आए हुए राक्षसराज रावण को उन्होंने कीड़े की तरह पकड़कर अपनी काँख में छ: महीने तक दबाए रखा और फिर लंका में लाकर बाँध दिया। रावण के दादाजी महर्षि पुलस्त्य के कहने पर उन्होंने रावण को मुक्त कर दिया। बालि के भय से बड़े-बड़े राक्षस डर जाते थे तथा उसके राज्य में उत्पात या आक्रमण नहीं करते थे। किन्तु ईश्वर की लीला एवं प्रारब्ध किसी का पीछा नहीं छोड़ता है यथा-
उमा दारु जोषित की नाई। सबहि नचावत रामु गोसाई।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धा काण्ड ११/४
शिवजी कहते हैं- हे उमा! सबके स्वामी श्रीरामजी सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं। सुग्रीव के साथ भी ऐसा ही हुआ। बालि ने सुग्रीव को मारपीट कर राज्य से निकाल दिया, उसकी सम्पत्ति और स्त्री भी छीन ली। इसका कारण एक प्रसंग है। सुग्रीव सदैव बालि की आज्ञा मानता था। बड़े भाई का पिता तुल्य सम्मान भी करता था। एक दिन मय राक्षस का पुत्र मायावी नामक राक्षस आया और मध्य रात्रि को नगर के द्वार पर आकर उसने बालि को युद्ध के लिए ललकारा। बालि बिना सोच-विचार के दौड़ पड़े। राक्षस शीघ्र दौड़कर एक गुफा में घुस गया। सुग्रीव भी बड़े भाई की सहायता हेतु उनके साथ दौड़ पड़े। सुग्रीव को पन्द्रह दिवस तक गुफा के बाहर प्रतीक्षा का कहकर बालि गुफा में चले गए। सुग्रीव एक माह तक गुफा के द्वार पर बैठे रहे। अंत में जब गुफा में से रक्त की धारा बह निकली तब सुग्रीव ने निश्चय किया कि हो न हो राक्षस ने मेरे भाई को मार डाला है। तब सुग्रीव ने गुफा के मुख पर एक भारी शिला रखकर अपने प्राणों की रक्षा हेतु किष्किन्धा नगरी भाग आया। मंत्रियों ने सुग्रीव के आते ही उसका राजतिलक कर दिया। कुछ दिन बाद बालि राक्षस को मारकर लौटने की तैयारी कर रहे थे कि गुफा के मुख को एक भारी शिला से बंद देखकर क्रोधित हो उठे। जैसे तैसे बालि ने गुफा के मुख की शिला हटाकर किष्किन्धा नगरी में आए तब उन्होंने सुग्रीव को राजा बना देखा तब उन्हें प्रतीत हुआ कि सुग्रीव ने मुझे जानबूझकर गुफा में बंद कर दिया तथा मारकर राज्य प्राप्त कर लिया। बालि ने क्रोधवश सुग्रीव पर प्रहार कर घायल कर दिया तथा सुग्रीव वहाँ से पलायन कर गए। दोनों भाईयों में शंका के कारण विवाद हुआ। बालि ने दुन्दुभि राक्षस को मार कर ऋष्यमूक पर्वत पर फेंक दिया था। उस राक्षस के रक्त से मतंग ऋषि का आश्रम अपवित्र हो गया। इस कारण ऋषि ने शाप दिया कि 'बालि इस पर्वत पर आते ही मर जाएगा। इस कारण बालि उस पर्वतीय क्षेत्र में नहीं जा सकता था। अतएव सुग्रीव ने अपना निवासस्थल वहाँ बना रखा था। सुग्रीव की इस पर्वत पर ही श्रीरामजी से भेंट व मित्रता हुई थी।
श्रीराम के कहने पर सुग्रीव युद्ध के लिए बालि के पास पहुँचा तब बालि यह देखकर दौड़ पड़ा। बालि की पत्नी तारा ने उसे जाने से बहुत रोका किन्तु विधि का विधान कुछ और ही था। उस समय बालि ने तारा से कहा कि श्रीराम तो समदर्शी है और कदाचित् वे मुझे मारेंगे तो भी मैं सदा के लिए सनाथ हो जाऊँगा।
बालि श्रीराम के स्वरुप को अच्छी तरह जानते थे। जब प्रभु ने बालि की छाती में छिपकर व्याघ की तरह बाण मारा तब बालि ने कहा-
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं।
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड ९/३
हे गोसाईं। आपने तो धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है और मुझे व्याघ (शिकारी) की तरह छिपकर मारा? मैं बैरी और सुग्रीव प्यारा? हे नाथ! किस दोष के कारण आपने मुझे मारा? तब श्रीराम ने बालि से कहा-
अनुज वधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड ९-४
हे मूर्ख! सुन छोटे भाई की पत्नी, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या ये चारों समान हैं। इनको जो कोई भी बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता है। बालि की अत्यन्त कोमल वाणी सुनकर श्रीरामजी ने उसके सिर को अपने हाथ से स्पर्श किया और कहा मैं तुम्हारे शरीर को अचल कर दूँ ताकि तुम प्राणों को रखो। बालि ने तब कहा हे कृपानिधान। सुनिये-
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ।।
यह तनय मम सम विनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये।।
दोहा - राम चरन दृढ़ प्राति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड छन्द २/दोहा १०
हे नाथ! अब मुझ पर दया दृष्टि कीजिये मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिए। मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ वहीं श्रीरामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ। हे कल्याणप्रद प्रभो। यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है। इसे स्वीकार कीजिए। और हे देवता और मनुष्यों के नाथ। बाँह पकड़ कर इसे अपना दास स्वीकार कीजिए। बालि ने इतना कहकर श्रीरामजी के चरणों में दृढ़ प्रीति करके अपने शरीर को वैसे ही बड़ी सरलता से त्याग दिया जैसे हाथी अपने गले से फूलों की माला गिरना न जान पाता है अर्थात् बालि के प्राण पलक झपकते ही बिना कष्ट के श्रीराम की कृपा से निकलकर श्रीराम के परमधाम चले गए।
विधि: किल नरं लोके विधानेनानुवर्तते।
वा.रा. कि.का. ५६/४
लोक में विधि के विधान के अनुसार मनुष्य को उसके किए हुए कर्म का फल निश्चित प्राप्त होता है।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
'मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)
बभूवर्क्षरजो नाम वानेन्द्र: प्रतापवान्।
ममार्य: पार्थिव: पक्षिन् धार्मिकौ तस्य चात्माजौ।।
सुग्रीवश्चैव वाली च पुत्रौ धनबलावुभौ।
लोके विश्रुतकर्माभूद् राजा वाली पिता मम्।।
वाल्मीकि रामायण किष्किन्धाकाण्ड ५७/५-६
अंगद ने सम्पाती को अपना परिचय देते हुए कहा कि- पक्षिराज! पहले एक प्रतापी वानरराज हो गए हैं, जिनका नाम ऋक्षरजा था। राजा ऋक्षरजा मेरे पितामह लगते थे। उनके दो धर्मात्मा पुत्र हुए- सुग्रीव और वाली (बालि)। दोनों ही बड़े बलवान् हुए। उनमें से राजा वाली मेरे पिता थे। संसार में अपने पराक्रम के कारण उनकी बड़ी ख्याति थी। यहाँ अंगद के द्वारा अपने पितामह एवं पिता का परिचय बहुत ही संक्षिप्त में दिया है। अत: बालि कौन थे, उनको श्रीराम ने क्यों मारा, बालि-सुग्रीव में क्यों शत्रुता थी आदि जानना आवश्यक है, यहाँ इसका विवरण इस प्रकार है-
एक बार मेरुपर्वत पर तपस्यारत ब्रह्माजी के आनन्दाश्रु पृथ्वी पर गिरे, जिससे एक वानर उत्पन्न हुआ। उसका नाम ऋक्षरजा (ऋक्षराज) था। एक समय वन में विचरण करते हुए यह ऋक्षराज एक बावड़ी में अपना प्रतिबिम्ब देखकर कूद पड़े। बाबड़ी में गिरते ही उसका स्वरूप स्त्री में परिवर्तित हो गया। इसके आगे की कथा का वर्णन श्री एकनाथजी कृत मराठी भावार्थ रामायण में है कि ऋक्षराज के स्त्री रूप होने का कारण पार्वतीजी द्वारा शाप है। जिसके अनुसार एक दिन कैलाश के एक सरोवर में शिव पार्वती के जल-क्रीड़ा के समय अचानक वहाँ कुछ मुनि आ पहुँचे तो शिव पार्वती को अन्तर्धान होना पड़ा। तब पार्वती ने यह शाप दे दिया था कि अब से इस सरोवर में जो भी स्नान करेगा वह नारी के रूप में परिवर्तित होकर ही बाहर निकलेगा। ऋक्षराज यह शाप वाली बात से अनभिज्ञ थे। अतएव इसमें कूद जाने के बाद वह स्त्री रूप में परिवर्तित हो गए थे।
एक ऐसी अन्य कथा प्रसिद्ध रामकथा के मर्मज्ञ क़ामिलबुल्के की पुस्तक रामकथा के अनुच्छेद ५१३ में भी वर्णन प्राप्त होता है। वाल्मीकि रामायण आदि में बालि-सुग्रीव की जन्मकथा का कोई वर्णन नहीं है किन्तु प्रचलित वाल्मीकि के दक्षिणापत्य बालकाण्ड १७-१० में बालि तथा सुग्रीव को क्रमश: इन्द्र तथा सूर्य का पुत्र माना गया है। उनकी जन्मकथा दक्षिणापत्य पाठ के एक प्रक्षिप्त सर्ग में प्राप्त होती है जिसके अनुसार महर्षि अगस्त्य नारदजी से सुनी हुई कथा श्रीराम को सुनाते हैं। अन्य पाठों में यह कथा युद्धकाण्ड सर्ग ४ में शुक उसे रावण को सुनाते हैं।
दक्षिणापत्य पाठ की कथा प्रसंग यह है- मेरु पर्वत के शिखर पर योगाभ्यास करते हुए ब्रह्माजी की आँखों से आँसू निकले। ब्रह्माजी के हाथ से आँसू पोंछे जाने पर ये आँसू भूमि पर गिरे और उनमें एक ऋक्षरजा नामक वानर उत्पन्न हुआ जो पर्वत पर रहने लगा और प्रतिदिन संध्या के समय ब्रह्माजी के पास आकर उनको फल-फूल चढ़ाया करता था। किसी एक दिन ऋक्षरजा ने मेरू पर्वत के सरोवर में से पानी पीना चाहा और उसने झुककर जल ने अपनी परछाई (प्रतिबिम्ब में) देखा। वह उसे अपना शत्रु समझकर सरोवर में कूद पड़ा और एक अत्यन्त लावण्यमय नारी (स्त्री) के रूप में निकला। इन्द्र तथा सूर्य संयोगवश उस समय वहाँ आ पहुँचे और उसे देखकर दोनों उस पर आसक्त हो गए। इन्द्र का तेज उस स्त्री के बालों पर गिरा और उससे बालि उत्पन्न हुआ। सूर्य का तेज उस स्त्री की ग्रीवा पर पड़ा और उससे सुग्रीव उत्पन्न हुआ। इन्द्र ने अपने पुत्र बालि को अक्षय सुवर्णमाला दे दी तथा सूर्य ने अपने पुत्र सुग्रीव की सेवा में हनुमान् को नियुक्त किया। अगले दिन सूर्योदय होते ही ऋक्षरजा ने पुन: अपना वानररूप प्राप्त किया और अपने पुत्रों के साथ ब्रह्माजी के पास गए। ब्रह्माजी ने ऋक्षरजा के साथ एक देवदूत को विश्वकर्मा-निर्मित किष्किन्धा भेज दिया। वहाँ पहुँचकर देवदूत ने ऋक्षराज को वानर राजा के पद पर अभिषिक्त किया।
बालि की स्त्री का नाम तारा था जो कि सुषेण नामक महाबलि वानर की पुत्री थी। तारा पाँच कन्याओं में से एक है यथा-
अहल्या द्रौपदी तारा कुन्ती मन्दोदरी तथा।
पंचकन्या: स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम्।।
ब्रह्मा ३/७/२१९
किष्किन्धा नरेश वानरराज बालि अमित पराक्रमी थे। वे नित्य संध्या पूजन, देवताओं की आराधना भी करते थे। बालि गौओं और ब्राह्मणों के अनन्य भक्त थे। वे सदा अहंकार और अधर्म से दूर रहते थे। बालि इतने महाबलि और पराक्रमी थे कि एक बार युद्ध के लिए आए हुए राक्षसराज रावण को उन्होंने कीड़े की तरह पकड़कर अपनी काँख में छ: महीने तक दबाए रखा और फिर लंका में लाकर बाँध दिया। रावण के दादाजी महर्षि पुलस्त्य के कहने पर उन्होंने रावण को मुक्त कर दिया। बालि के भय से बड़े-बड़े राक्षस डर जाते थे तथा उसके राज्य में उत्पात या आक्रमण नहीं करते थे। किन्तु ईश्वर की लीला एवं प्रारब्ध किसी का पीछा नहीं छोड़ता है यथा-
उमा दारु जोषित की नाई। सबहि नचावत रामु गोसाई।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धा काण्ड ११/४
शिवजी कहते हैं- हे उमा! सबके स्वामी श्रीरामजी सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं। सुग्रीव के साथ भी ऐसा ही हुआ। बालि ने सुग्रीव को मारपीट कर राज्य से निकाल दिया, उसकी सम्पत्ति और स्त्री भी छीन ली। इसका कारण एक प्रसंग है। सुग्रीव सदैव बालि की आज्ञा मानता था। बड़े भाई का पिता तुल्य सम्मान भी करता था। एक दिन मय राक्षस का पुत्र मायावी नामक राक्षस आया और मध्य रात्रि को नगर के द्वार पर आकर उसने बालि को युद्ध के लिए ललकारा। बालि बिना सोच-विचार के दौड़ पड़े। राक्षस शीघ्र दौड़कर एक गुफा में घुस गया। सुग्रीव भी बड़े भाई की सहायता हेतु उनके साथ दौड़ पड़े। सुग्रीव को पन्द्रह दिवस तक गुफा के बाहर प्रतीक्षा का कहकर बालि गुफा में चले गए। सुग्रीव एक माह तक गुफा के द्वार पर बैठे रहे। अंत में जब गुफा में से रक्त की धारा बह निकली तब सुग्रीव ने निश्चय किया कि हो न हो राक्षस ने मेरे भाई को मार डाला है। तब सुग्रीव ने गुफा के मुख पर एक भारी शिला रखकर अपने प्राणों की रक्षा हेतु किष्किन्धा नगरी भाग आया। मंत्रियों ने सुग्रीव के आते ही उसका राजतिलक कर दिया। कुछ दिन बाद बालि राक्षस को मारकर लौटने की तैयारी कर रहे थे कि गुफा के मुख को एक भारी शिला से बंद देखकर क्रोधित हो उठे। जैसे तैसे बालि ने गुफा के मुख की शिला हटाकर किष्किन्धा नगरी में आए तब उन्होंने सुग्रीव को राजा बना देखा तब उन्हें प्रतीत हुआ कि सुग्रीव ने मुझे जानबूझकर गुफा में बंद कर दिया तथा मारकर राज्य प्राप्त कर लिया। बालि ने क्रोधवश सुग्रीव पर प्रहार कर घायल कर दिया तथा सुग्रीव वहाँ से पलायन कर गए। दोनों भाईयों में शंका के कारण विवाद हुआ। बालि ने दुन्दुभि राक्षस को मार कर ऋष्यमूक पर्वत पर फेंक दिया था। उस राक्षस के रक्त से मतंग ऋषि का आश्रम अपवित्र हो गया। इस कारण ऋषि ने शाप दिया कि 'बालि इस पर्वत पर आते ही मर जाएगा। इस कारण बालि उस पर्वतीय क्षेत्र में नहीं जा सकता था। अतएव सुग्रीव ने अपना निवासस्थल वहाँ बना रखा था। सुग्रीव की इस पर्वत पर ही श्रीरामजी से भेंट व मित्रता हुई थी।
श्रीराम के कहने पर सुग्रीव युद्ध के लिए बालि के पास पहुँचा तब बालि यह देखकर दौड़ पड़ा। बालि की पत्नी तारा ने उसे जाने से बहुत रोका किन्तु विधि का विधान कुछ और ही था। उस समय बालि ने तारा से कहा कि श्रीराम तो समदर्शी है और कदाचित् वे मुझे मारेंगे तो भी मैं सदा के लिए सनाथ हो जाऊँगा।
बालि श्रीराम के स्वरुप को अच्छी तरह जानते थे। जब प्रभु ने बालि की छाती में छिपकर व्याघ की तरह बाण मारा तब बालि ने कहा-
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहि ब्याध की नाईं।
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा। अवगुन कवन नाथ मोहि मारा।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड ९/३
हे गोसाईं। आपने तो धर्म की रक्षा के लिए अवतार लिया है और मुझे व्याघ (शिकारी) की तरह छिपकर मारा? मैं बैरी और सुग्रीव प्यारा? हे नाथ! किस दोष के कारण आपने मुझे मारा? तब श्रीराम ने बालि से कहा-
अनुज वधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी।।
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधे कछु पाप न होई।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड ९-४
हे मूर्ख! सुन छोटे भाई की पत्नी, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या ये चारों समान हैं। इनको जो कोई भी बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता है। बालि की अत्यन्त कोमल वाणी सुनकर श्रीरामजी ने उसके सिर को अपने हाथ से स्पर्श किया और कहा मैं तुम्हारे शरीर को अचल कर दूँ ताकि तुम प्राणों को रखो। बालि ने तब कहा हे कृपानिधान। सुनिये-
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ।।
यह तनय मम सम विनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिये।।
दोहा - राम चरन दृढ़ प्राति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग।।
श्रीरामचरितमानस किष्किन्धाकाण्ड छन्द २/दोहा १०
हे नाथ! अब मुझ पर दया दृष्टि कीजिये मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिए। मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ वहीं श्रीरामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ। हे कल्याणप्रद प्रभो। यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बल में मेरे ही समान है। इसे स्वीकार कीजिए। और हे देवता और मनुष्यों के नाथ। बाँह पकड़ कर इसे अपना दास स्वीकार कीजिए। बालि ने इतना कहकर श्रीरामजी के चरणों में दृढ़ प्रीति करके अपने शरीर को वैसे ही बड़ी सरलता से त्याग दिया जैसे हाथी अपने गले से फूलों की माला गिरना न जान पाता है अर्थात् बालि के प्राण पलक झपकते ही बिना कष्ट के श्रीराम की कृपा से निकलकर श्रीराम के परमधाम चले गए।
विधि: किल नरं लोके विधानेनानुवर्तते।
वा.रा. कि.का. ५६/४
लोक में विधि के विधान के अनुसार मनुष्य को उसके किए हुए कर्म का फल निश्चित प्राप्त होता है।
प्रेषक
डॉ. नरेन्द्रकुमार मेहता
'मानसश्रीÓ, मानस शिरोमणि, विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर
सीनि. एमआईजी-१०३, व्यास नगर,
ऋषिनगर विस्तार, उज्जैन (म.प्र.)