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जब श्रीराम ने राज्य में हँसी पर रोक लगा दी

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जब श्रीराम ने राज्य में हँसी पर रोक लगा दी
श्रीराम कथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग
जब श्रीराम ने राज्य में हँसी पर रोक लगा दी
एक समय की बात है कि श्रीराम अपने मित्रों के साथ सभा में नृत्यांगनाओं के द्वारा किया जाने वाला नृत्य देख रहे थे कि उन सभा में बैठे एक व्यक्ति-
एतस्मिन्नन्तरै तत्र पौर: कश्चित्यभास्थित:।
वारंगना नृत्यादिं दृष्वा हास्यं चकार स:।।
आनन्द रामायण राज्यकाण्डम् उत्तर्रार्द्ध सर्ग १३-२
नृत्यांगनाओं के नृत्य को देखकर जोर से हँस पड़ा। उस हास्य को सुना तो श्रीराम को उस समय की एक बात याद आ गई।
तघ्दास्यं राधव: श्रृत्वा सस्मार पूर्वचेष्टितम्।
लंकायां युद्धसमये रावणस्य शिरांसि खात्।।
रामबाणान्मृतिं लब्धाऽ स्माभिश्चेति विहस्य च।
श्रीरामं वन्दनं कर्तुं पतन्ति स्म प्रभुं पुन:।।
तेषां विक्रालतां दृष्वा दंतादीनां रघूत्तम:।
मामुत्तं हि पुनर्यान्ति शिरांस्येतानि खादिति।।
आनन्द रामायण राज्यकाण्डम् उत्तरार्द्ध सर्ग १३-३ से ५
जब श्रीराम लंका में रावण के मस्तकों को बाणों से काटकर आकाश में उड़ा देते थे तो वे मस्तक यह समझकर कि राम के बाणों से मेरी बुद्धि ठिकाने आई है। इस भाव से हँसते हुए ऊपर से फिर नीचे आकर श्रीराम के चरणों में लौटते हुए वन्दना करने लगते। उनके दाँतों आदि की भयंकरता देखकर श्रीराम को यह विचार होता कि ये मस्तक मुझे खाने आ रहे हैं। इसलिए वे उन्हें फिर बाणों द्वारा मस्तकों को आकाश में उड़ा दिया करते थे। यह उपाय श्रीराम को एक दो बार नहीं पूरे एक सौ बार करने पड़े थे। उसी बात का स्मरण करके श्रीराम ने सोचा कि कहीं रावण के मस्तक ही तो इस सभा में आकर ठहका तो नहीं मार रहे हैं इस विचार से वे अपने आसपास आश्चर्य से देखने लगे उन्हें यह भी विचार आया कि राक्षस मायावी होते हैं शायद यहाँ भी आ जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस तरह जब श्रीराम किसी का हास्य सुनते तो उनका ध्यान उसी ओर आकृष्ट हो जाया करता था और अपने आसपास देखने लगते थे। इस समय श्रीराम ने उस हास्य को सुनकर क्षणभर विचार किया और लोगों से कहने लगे-
यदा यदा श्रूयतेऽत्र हास्यं के नापि यत्कृतम्।
तदा तदा दशास्यस्यशिरोहास्यं स्मराम्यहम्।।
मायाविनो राक्षासास्ते मां विस्मार्थ पुनश्चिरात्।
मामुत्तमत्र यस्मांति त्विति मत्वा स्वचेतसि।।
अनश्च्य निदितं हास्यं नीतिशास्त्रेषु सर्वदा।
अतो हास्य वर्जयामि सर्वेषां भूनिवासिनाम्।।
इति निश्चित्य हृदये लक्ष्मणं वाक्यमब्रवीत्।
दुंदभि घोषयस्वाद्य पुर्यां राष्ट्रेऽवनीतले।।
तथेति रामवाक्यात्स घोषयामास् दुन्दभिम्।
पौरा जनपदा: सर्वे श्रुत्वा शिक्षाध्वनिं प्रभो:।।
आनन्द रामायण राज्यकाण्डम् उत्तरार्द्ध सर्ग १३-१० से १४
जब कभी मैं किसी को हँसते हुए देखता हूँ तो मुझे रावण की हँसी का स्मरण हो आता है और यह विचार आता है कि वे मायावी राक्षस जिनका मैंने वध कर दिया है, मुझे धोखा देकर खाने के लिए तो नहीं आ रहे हैं। दूसरी बात यह है कि नीतिशास्त्र में हास्य की निन्दा की गई है। इसलिए आज से मैं भूतल पर रहने वालों को हँसने की मनाही करता हूँ। इसके बाद श्रीराम लक्ष्मण से बोले कि मेरे राष्ट्र तथा सम्पूर्ण पृथ्वी पर डुण्डी पिटवाकर कहला दो कि कोई स्त्री, पुरुष, मेरा मित्र, स्वयं सीता तथा मेरे बेटे या भाई भी न हँसे। जो इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा उसे दण्ड भुगतना पड़ेगा।
लक्ष्मणजी ने भी श्रीराम के आज्ञानुसार चारों ओर दुंदुभी बजवा कर श्रीराम की आज्ञा घोषित करा दी। जितने नगरवासी तथा देशवासी थे, उन्होंने श्रीराम की इस नीति शास्त्र की बात सुनकर एवं दण्ड के भय से सदा-सदा के लिए हँसना छोड़ दिया। नर्तकियों के नृत्य, गाने, नाटक, स्त्रियाँ या मित्रों के साथ हँसी-दिल्लगी आदि कार्य बन्द हो गए। लोगों ने पुराण-इतिहास आदि का अध्ययन करना बन्द कर दिया। विशेष रूप से पुत्र जन्म, नामकरण आदि सामाजिक उत्सवों पर हँसी न आने पाए इसका ध्यान रखा जाने लगा। तात्पर्य यह है कि नगरवासी एवं देशवासी हास्योत्पादक कार्यों से दूर हो गए। श्रीराम के दण्ड से कोई एकान्त में भी बैठकर हँसता नहीं था। यह व्यवस्था एक वर्ष तक चलती रही।
सभी देवता एकत्रित होकर इन्द्र के पास गए। इन्द्र एवं देवताओं ने ब्रह्माजी से कर्मांग पूजनादि सत्कार्य लुप्त होने की जानकारी उन्हें दे दी। ब्रह्माजी ने कहा कि श्रीरामचन्द्रजी के समक्ष हम सब शक्तिहीन हैं। मैं उन्हें उपदेश नहीं दे सकता क्योंकि वे मेरे पिता हैं। अतएव मैं समय आने पर युक्ति से कार्यसाधन करूँगा, जिससे आप सब देवताओं का कल्याण हो सके। इतना कहकर ब्रह्माजी भूमण्डल की ओर चल पड़े। अयोध्यानगरी की सीमा पर एक विशाल पीपल के वृक्ष में प्रविष्ट हो गए। उधर से आने जाने वालों को देखकर जोरों से हँसने लगे। उसी समय एक लकड़हारा लकड़ी का बोझ सिर पर रखे हुए आ पहुँचा। उसे भी देखकर पीपल के वृक्ष में बैठे ब्रह्माजी हँसे-
श्रुत्वा पिप्पल हास्यं तत्तेन दीघ्र जहास स:।
तत: स भारवाश्व पयौ हट्टे प्रभो: पुरीम।।
काष्ठभारविक्रमार्थ तत्र स्मृत्वा स्मितं हृद्।ि
चलपत्रस्य तोऽत्त्युच्चैर्न समर्थो निरोधितुम।।
भारवाहस्य हास्यं तद्राजदूतोऽथ शुश्रुषे।
राजदूतो जहासोच्चैर्न समर्थो निरोधितुम्।।
राजदूत: सभां गत्वा भारवाहस्य यत् स्मितम्।
हृदि स्मृत्वा जहासोच्चैस्तच्छुत्वा ते सभासद:।।
सभायां जहसु: सर्वे तच्छुत्वा राघवोऽपि स:।
उच्चैर्जहास सदसि वरसिंहासने स्थित:।।
आनन्द रामायण राज्यकाण्डम् उत्तरार्द्ध सर्ग १३-३०-३४
पीपल की हँसी सुनकर लकड़हारा दुगने जोर से हँसा और सिर पर लकड़ी का बोझ लिये अयोध्यानगरी में जा पहुँचा। मार्ग में उसे पीपल की हँसीवाली बात याद आ गई और ठहाका लगाकर हँस पड़ा किन्तु कुछ ही क्षण बाद हँसने पर मनाही की बात याद आ गई। लकड़हारे को हँसते देखकर चौराहे पर खड़ा सिपाही भी अपनी हँसी नहीं रोक सका। सिपाही सभा में गया तो उसे उस लकड़हारे की हँसी याद आ गई, जिससे वह भी हँस पड़ा। सिपाही को हँसते देखा तो सभा में बैठे हुए लोग भी अपनी हँसी नहीं रोक सके और वे भी हँसने लगे। सारी सभा में सभी को हँसता देखकर श्रीरामजी भी हँसने लगे। उस समय ही श्रीरामजी ने तुरन्त हँसी रोक कर सोचने लगे कि अन्य लोग हँसे तो हँसे, मैं क्यों हँसा? जब सारे भूतलवासियों को इस काम से रोक रहा हूँ और हँसने पर दण्ड देता हूँ। फिर भी मैं हँसा? मुझे कौन दण्ड देगा? साथ ही साथ ये नगरवासी क्या कहेंगे? यही कि श्रीराम दूसरों को शिक्षा देते हैं, प्रजा के लिए दण्ड का विधान करते हैं और स्वयं तो जो मन में आता है वही कर डालते हैं। सब लोगों के लिए हँसना निषेध किया गया है किन्तु स्वयं हजारों मनुष्यों के सामने ठहाका लगाकर हँसते हैं। इसका परिणाम यह होगा कि वे भविष्य में मेरी आज्ञा नहीं मानेंगे। यह सब सोच विचार कर श्रीराम ने यह निश्चय किया कि उनसे बड़ी भारी भूल हो गई है। लेकिन कुछ क्षणभर बाद फिर श्रीराम को हँसी आ गई थी। पूरी पूरी कोशिश करने पर भी श्रीराम की हँसी रुकी नहीं। तब श्रीरामजी सभा के लोगों से कहने लगे यह बताओ कि आप लोग किस बात पर इतना हँस रहे हैं? आपको हँसता देखकर मैं भी हँस पड़ा। सभा में बैठे हुए पुरवासियों ने उत्तर दिया कि आपके सिपाही को हँसते देखकर हमें भी हँसी आ गई। पुरवासियों की बात सुनकर श्रीराम ने सिपाही से पूछा कि तुम क्यों हँसे? उसने कहा कि एक लकड़हारे को हँसते देखकर मुझे भी हँसी आ गई। दूत की बात सुनकर श्रीराम ने दूतों द्वारा लकड़हारे को पकड़वा कर मँगवाया और उससे श्रीराम ने कहा कि किसी प्रकार का भय न करके मुझे यह बतलाओ कि तुम बाजार में क्यों हँसे। लकड़हारा श्रीराम की बात सुनकर चौकन्ना हो गया, फिर भी भय से उसके कण्ठ, ओष्ठ और तालु सूख गए। शरीर थर-थर काँपने लगा और भर्राये स्वर से उत्तर दिया कि अयोध्या नगरी के समीप ही एक पीपल का वृक्ष है।
मैंने बाजार आते समय उस वृक्ष की हँसी सुनी और हँस पड़ा। नगर में आया तो यहाँ भी एकाएक बात याद आ गई और कोशिश करके भी मैं अपनी हँसी नहीं रोक सका। उसकी यह बात सुनकर हँसते हुए श्रीरामजी ने दूतों को आज्ञा दी कि तुम इसके साथ जाकर देखो कि यह जो कह रहा है वह ठीक है या नहीं? उस लकड़हारे के साथ दूत गए, वे सब उस पीपल के समीप गए और उसकी हँसी सुनी तो वे सब खूब हँसने लगे और लौटकर श्रीराम को वहाँ का सारा वृत्तान्त सुना दिया। दूतों की बात सुनकर श्रीराम बहुत आश्चर्यचकित हुए तथा साचने लगे कि मेरे राज्य में यहाँ बड़ा ऐसा वृक्ष उत्पन्न हुआ है कि इसकी पहचान करना कठिन है तथा यह मेरी शासन व्यवस्था को लुप्त करना चाहता है। ऐसा सोच विचार कर श्रीराम ने दूतों को आज्ञा दी कि उस पीपल के वृक्ष को काट डालो क्योंकि वह मेरी आज्ञा को भंग कर रहा है। श्रीराम की आज्ञानुसार सैकड़ों हजारों व्यक्ति हाथों में कुठार लेकर उस वृक्ष की ओर चल पड़े। उस समय भी वृक्ष को हँसते देखकर वे सब उस पीपल के वृक्ष को काटने को उद्यत हो गए। उनको देखकर ब्रह्माजी उस वृक्ष पर से ही पत्थर के टुकड़े फेंक-फेंककर मारने लगे। इस उत्पात से अनेक लोगों को गहरी चोट लगी। उनका शरीर रुधिर से भीग गया और चिल्लाते हुए उन्होंने श्रीराम के पास पहुँचकर वहाँ का हाल बतलाया। यह सुनकर श्रीराम कुपित होकर बहुत सी सेना के साथ मंत्री सुमन्त्रजी को वृक्ष को काटने भेजा। सुमन्त्रजी श्रीराम को प्रणाम करके पीपल के वृक्ष की ओर चल पड़े।
सुमन्त्रजी उस वृक्ष के समीप पहुँचे भी नहीं थे कि पत्थरों की वर्षा होना आरम्भ हो गई। सुमन्त्रजी श्रीराम की आज्ञा से पीछे न लौटकर आगे ही आगे बढ़ते गए और वृक्ष से पत्थरों की वर्षा होती रही। अन्त में वे थककर घायल होकर गिर पड़े। सुमन्त्रजी को गिरते देखकर सेना में बड़ा कोलाहल होने लगा। सारे अयोध्यावासियों को इस अनहोनी घटना की बात मालूम हो गई। सुमन्त्रजी को घायल सुना तो श्रीराम ने अपने दोनों पुत्रों के साथ एक बड़ी सेना भेज दी। इस कौतुक को नगर की नारियाँ अपनी अटारियों पर चढ़कर उस पीपल के वृक्ष को देखने लगी। शत्रुघ्न भी लवकुश के उपरान्त सेना लेकर चल पड़े। नगर से बाहर निकले ही थे कि उनके रथ के घोड़े मार्ग में बैठ गए और कोचवान के बार-बार मारने पर भी नहीं उठे। यही दशा पूर्व में लवकुश के रथों की हुई थी। अत: उन्होंने लौटकर इस घटना की जानकारी श्रीराम को दी। इस गम्भीर समस्या के निवारण हेतु उन्होंने गुरु वसिष्ठजी को बुलाकर परामर्श किया। यद्यपि श्रीराम सब कुछ जानते थे फिर भी मनुष्य भाव होने से उन्होंने राजगुरु वसिष्ठजी को आमन्त्रित किया। श्रीराम की आज्ञानुसार तुरन्त गुरुजी राजसभा में आ गए। श्रीराम गुरु के समीप गए और उन्हें एक उत्तम आसन पर बैठाकर पूजन कर सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
यह सब सुनकर गुरु वसिष्ठजी ने कहा कि इस विषय में आप वाल्मीकिजी से परामर्श करें तो अच्छा होगा। क्योंकि उन्होंने आपके चरित्र का वर्णन किया है। गुरुजी के आज्ञानुसार श्रीराम ने महर्षि वाल्मीकिजी को बुलवा भेजा तथा उनके आगमन पर उनको उठकर सुन्दर आसन पर बैठाया तथा उनकी पूजा की। श्रीराम ने पीपल का सम्पूर्ण वृत्तान्त उन्हें कह सुनाया तब-
ततो विहस्य वाल्मीकि: प्रोवाच रघुनन्दम्।
सर्वं वेत्सि भवान् राम किमर्थ मां तु पृच्छसि।।
त्वं चेत्पृच्छसि रामात्र मानुषं भावमाश्रित:।
तर्हि ते कथयाम्यद्य श्रृणुष्व रघुनन्दन।।
आनन्द रामायण राज्यकाण्डम उत्तरार्द्ध सर्ग १३-७८-७९
महर्षि वाल्मीकिजी ने यह सारा वृत्तान्त सुनकर हँसते हुए कहा- हे राम! आपसे कुछ भी छिपा हुआ नहीं है, आप सब जातने हैं फिर भी मुझसे क्यों पूछते हो? हाँ यदि मानवभाव (मनुष्य रूप) का आश्रय लेकर आप मुझसे पूछते हो तो बताता हूँ सुनिए। आपने अपने राज्य में हँसना निषेध कर रखा है। इस कारण प्रजा ने सभी शुभ कार्यों को बंद कर दिया है, ये सब कार्य हँसने-खुश होने के हैं। विवाह-कथावार्ता, खेल-तमाशे, नाच-गाने, यज्ञादि, सत्क्रियाएँ और सांसारिक उत्सव आदि कार्य लोग नहीं कर रहे हैं। ये सब आनन्ददायक कार्य एक वर्ष से बन्द है। इससे व्याकुल होकर, उत्साह देवता, कर्मांग देवता तथा इन्द्रादि लोकपाल भूमण्डल पर अपनी पूजा को लुप्त होते देखकर दु:खी मन से ब्रह्माजी के पास गए, वहाँ जाकर उन्होंने अपना दु:ख उन्हें सुनाया। ब्रह्मजी आपके समक्ष अपने आपको असमर्थ समझकर गुप्त रूप से पीपल के वृक्ष में प्रविष्ट हो गए हैं। जो कोई इस वृक्ष को काटने जाता है वे उसी पर पत्थर की वर्षा कर देते हैं। यह सब सुनकर श्रीराम को क्रोध हो आया तथा उन्होंने कहा कि अब मैं आज ब्रह्मा का पराक्रम देखता हूँ। मैं एक क्षत्रिय हूँ अत: अपने ही आदेश को किसी भी प्रकार उलट नहीं कर सकता हूँ। श्रीराम ने सेना को तैयार होने की आज्ञा दे दी। वाल्मीकिजी ने श्रीराम को समझाया कि हे रघुनन्दन श्रेष्ठ! आप क्रोध को त्याग दीजिए तथा मेरी बात सुनो। आप साक्षात् सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म है एवं आपका चरित्र लोगों को आनन्दित करने वाला है। उस चरित्र का गान मैंने आपके पुत्रों के मुख से यज्ञशाला में सुनवाया था जिसे आपने भी सुना है। जिसके सुनने मात्र से मनुष्य आनन्द मग्न हो जाता है, ऐसे पुनीत चरित्र को लोगों को यदि आप न हँसने का नियम रखेंगे तो लोग उसका पालन नहीं करेंगे। आपके चरित्र की कथा सुनकर लोगों को आनन्द प्राप्त होता है तथा वे हँसे बिना भी नहीं रह सकते हैं। वाल्मीकिजी ने यह भी श्रीराम को बताया कि उन्होंने सौ करोड़ श्लोकों में आपके चरित्र का वर्णन किया है। आपके भावी वरदान के प्रभाव से आपका यह आनन्द रामायण सौ करोड़ श्लोकों वाला मेरा बनाया श्रीरामचरित्र नौ काण्डोंवाला, द्वादश सहस्त्रात्मक रामचरित्र एवं एक सौ नौ श्लोकोवाली रामायण। ये सब पृथ्वीमण्डल में कहीं कहीं रहेंगे। आपके भावी वरदान से एक सुन्दर कीर्तनमाला जिसमें १०८ सर्ग है, सुमेरु की मनका सदृश अलग से लगी है, इसका कोई भी खण्डन नहीं कर सकेगा। इस सौ काण्डोंवाले चरित्र को लोग आपकी प्रसन्नता के लिए तब तक सम्हालेंगे, जब तक कि संसार में सूर्य और चन्द्रमा विद्यमान रहेंगे।
अतएव आज आपसे प्रार्थना करता हूँ कि इस नौ काण्डवाले आनन्द रामायण की शोभा न बिगाड़िए। यदि आप सदा के लिए लोगों का हँसना रोक देंगे तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा। मेरी रामायण किसी काम की नहीं रह जाएगी। इसीलिए मैं आप से कहता हूँ कि कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे आपके आदेश में किसी प्रकार का अन्तर न पड़े तथा देवता और मनुष्य भी प्रसन्न रहें और मेरा काव्य भी सत्य हो जाए।
जना हंसतु सर्वत्र दंतानां दशनं विना।
आस्यामाच्छाद्य वस्त्रेण कदा कौतुकदर्शनात्।।
हास्यं लक्ष्मीसूचकं हि हसित सौरव्यपदायकम्।
मांगल्य हसित चैतद्धास्याच्छेष्ठं न किंचन।।
नारी स्मितानना यस्मिन् गेहे तन्मन्दिरं स्मृतम्।
लक्ष्म्याऽपिस्थीयते तत्र निश्चिलं रघुनन्दन।।
आनन्द रामायण राज्यकाण्डम् उत्तरार्द्धम् सर्ग १३-१४ से १६
लोग हँसे सही किन्तु उनके दाँत न दिखाई दें। किसी कौतुक को देखकर यदि लोगों को हँसी आ जाए तो कपड़े से मुँह ढांककर हँसे क्योंकि हँसी लक्ष्मीसूचक है, हँसी सबको सुख देने वाली वस्तु है और हँसी मंगलमयी मानी गई है। कहने का भाव यह है कि हँसी से बढ़कर कोई चीज है ही नहीं। जिस घर में मुस्कराती हुई नारी रहती है, वह घर देव मंदिर के समान पवित्र होता है और लक्ष्मीजी वहाँ पर निवास करती हैं। हे रघुनन्दन! इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं है। वाल्मीकिजी ने श्रीराम से कहा कि मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मेरी बात आप मान लीजिए। ब्रह्मा आपको अपना पिता मानते हैं। मैं तुम्हें स्वयं जाकर ब्रह्मा को आपकी शरण में ले आऊँगा तथा वे आपसे क्षमा माँगेंगे। श्रीराम ने वाल्मीकिजी की बात मान ली और कहा कि आप जैसा चाहते हैं वैसे ही होगा। अनन्तर इन्द्र और ब्रह्मा श्रीरामजी की सभा में आए और श्रीराम को प्रणाम करने के पश्चात्, ब्रह्माजी ने कहा कि मैंने जो अपराध किया है सो क्षमा करें। आपका कर्तव्य है कि आप हमारी रक्षा करें। पहले भी आपने हमारी रक्षा के लिए पृथ्वी पर कितने ही अवतार लेकर शत्रुओं का वध किया है। ब्रह्माजी की स्तुति सुनकर श्रीराम ने ब्रह्माजी को हृदय से लगा लिया और अपने पास बैठाकर कहा कि वाल्मीकिजी के कथनानुसार मैं आज्ञा देता हूँ कि तुम्हारे सुख के लिए लोग हँसे या जो कुछ करें मुझे कोई आपत्ति नहीं है। अत: वाल्मीकि रामायण में दण्ड के बारे में राजा के लिए बताया गया है-
सम्यक्प्रणिहिते दण्डे प्रजा भवति रक्षिता।
वा.रा. उत्तरकाण्ड ५९ प्रक्षिप्त २-३२
दण्ड का भलिभाँति प्रयोग होने पर प्रजा सुरक्षित रहती है।

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