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न्यायपालिका में AI पर असमंजस कायम, कानून मंत्री बोले—अब तक कोई आधिकारिक नीति नहीं

नई दिल्ली केंद्र सरकार ने शुक्रवार को लोकसभा में बताया कि न्यायपालिका में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के उपयोग को लेकर अभी तक कोई औपचारिक नीति या दिशानिर्देश तैयार नहीं किए गए हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक क्षेत्र में एआई के इस्तेमाल की संभावनाएं तलाशने के लिए एक एआई कमेटी बनाई है, लेकिन सभी एआई-आधारित …
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नई दिल्ली 
केंद्र सरकार ने शुक्रवार को लोकसभा में बताया कि न्यायपालिका में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के उपयोग को लेकर अभी तक कोई औपचारिक नीति या दिशानिर्देश तैयार नहीं किए गए हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक क्षेत्र में एआई के इस्तेमाल की संभावनाएं तलाशने के लिए एक एआई कमेटी बनाई है, लेकिन सभी एआई-आधारित समाधान अभी नियंत्रित पायलट चरण में ही हैं। कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने बताया कि न्यायपालिका फिलहाल केवल उन्हीं क्षेत्रों में एआई का उपयोग कर रही है, जिन्हें ई-कोर्ट फेज-3 की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट में मंजूरी दी गई है।
उन्होंने कहा, "न्यायपालिका एआई को अपनाने में कई बड़ी चुनौतियों को ध्यान में रख रही है, जैसे एल्गोरिद्म में पक्षपात का खतरा, भाषा और अनुवाद संबंधी समस्याएं, डेटा गोपनीयता और सुरक्षा और एआई द्वारा तैयार सामग्री की मैनुअल जांच की आवश्यकता।"
मेघवाल ने बताया कि ई-कमेटी की अध्यक्ष, सुप्रीम कोर्ट जज की निगरानी में छह हाई कोर्ट जजों और तकनीकी विशेषज्ञों वाली एक सब-कमेटी बनाई गई है। यह कमेटी सुरक्षित कनेक्टिविटी, डेटा संरक्षण, प्रमाणीकरण व्यवस्था और ई-कोर्ट परियोजना के तहत मौजूद डिजिटल ढांचे की मजबूती का आकलन कर रही है।
कानून मंत्री ने बताया कि न्यायिक अनुसंधान में मदद के लिए कानूनी अनुसंधान विश्लेषण सहायक (एलईजीआरएए) नाम का एआई टूल विकसित किया गया है। यह जजों को कानूनी दस्तावेजों और निर्णयों के विश्लेषण में सहायता करता है।
इसके अलावा डिजिटल कोर्ट 2.1 नाम का एक और एआई आधारित प्लेटफॉर्म तैयार किया गया है। यह जजों और न्यायिक अधिकारियों के लिए केस से जुड़ी सभी जानकारी एक ही विंडो में उपलब्ध कराता है। इस सिस्टम में एएसआर-श्रुति (वॉयस-टू-टेक्स्ट) और पाणिनी (अनुवाद) जैसी सुविधाएं भी जोड़ी गई हैं, जिससे आदेश और फैसलों की डिक्टेशन आसान होती है।
उन्होंने बताया कि अब तक पायलट फेज में इन एआई समाधानों में किसी तरह की सिस्टमैटिक बायस या गलत सामग्री जैसी समस्या सामने नहीं आई है।
मेघवाल ने बताया कि हाल के दिनों में अदालतों में मॉर्फ्ड या फर्जी डिजिटल सामग्री जमा कराए जाने के मामलों में वृद्धि हुई है। न्यायपालिका ने इसे गंभीर खतरे के रूप में पहचाना है, क्योंकि यह न सिर्फ न्यायिक प्रक्रिया बल्कि सार्वजनिक धारणा को भी प्रभावित कर सकता है।
उन्होंने जानकारी दी कि ऐसे मामलों में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000 की विभिन्न धाराओं के तहत कार्रवाई होती है, जैसे पहचान की चोरी (66सी), कंप्यूटर संसाधन का उपयोग कर धोखाधड़ी (66डी), अश्लील या आपत्तिजनक सामग्री (67, 67ए, 67बी) का प्रकाशन या प्रसारण। इसी तरह भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धाराएं भी इन अपराधों पर लागू होती हैं।

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